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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 200 तद्विकल्पवासनायाः प्रबोधकत्वाद्विकल्पस्य जनकं तदा क्षणक्षयादौ विकल्पजननप्रसंगस्तत एव तस्य नीलादाविव तत्राप्यविशेषात् / क्षणक्षयादावनभ्यासान्न तत्तद्विकल्पवासनाया: प्रबोधकमिति चेत् , कोयमभ्यासो नाम ? बहशो दर्शनमिति चेन्न, तस्य नीलादाविव तत्राप्यविशेषादभावासिद्धेः / तद्विकल्पोत्पत्तिरभ्यास इति चेत् , तस्य कुतः क्षणक्षयादिदृष्टावभाव: ? तद्विकल्पवासनाप्रबोधकत्वाभावादिति चेत् , सोयमन्योन्यसंश्रयः। सिद्धे हि क्षणक्षयादौ दर्शनस्य तद्विकल्पवासनाप्रबोधकत्वाभावेभ्यासाभावस्य सिद्धिस्तत्सिद्धौ च तत्सिद्धिरिति। एतेन नीलादौ दर्शनस्य तद्वासनाप्रबोधकत्वाभ्यासेभ्योऽन्योन्याश्रयो व्याख्यातः / सति तद्वासनाप्रबोधकत्वे प्रसंग दोष आता है-अर्थात् अज्ञात पदार्थ के ज्ञान से कुछ भी विकल्प उठ सकते हैं उसी प्रकार स्वयं अनिश्चित निर्विकल्प ज्ञान से विकल्प ज्ञान की उत्पत्ति मान लेने पर भी अतिप्रसंग दोष आयेगा / अर्थात् चाहे जिस अनिश्चित पदार्थ का विकल्प हो जायेगा क्योंकि दोनों में प्रश्न समान ही है। यदि बौद्ध कहे कि अर्थ का निर्विकल्प दर्शन उसकी विकल्प वासना को जगाने वाला होने से विकल्प ज्ञान को उत्पन्न कर देता है तो जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार का कथन करने पर तो क्षणक्षयादि (क्षण-क्षण में नष्ट होने वाले निर्विकल्प पदार्थ) के विषय में भी विकल्प के उत्पन्न होने का प्रसंग आयेगा। क्योंकि जैसे नीलादि स्वलक्षणों के निर्विकल्प ज्ञान से नील आदि में होने वाले विकल्प ज्ञान की जननी विकल्प वासना को जागृत करने में सहायक है उसी प्रकार क्षणिकत्व का निर्विकल्प ज्ञान भी क्षणिकत्व के विकल्प ज्ञान को उत्पन्न कराने में सहायक हो जायेगा, क्योंकि दोनों में कोई विशेषता नहीं है। .. यदि कहो कि क्षणिकत्व आदि में अभ्यास न होने के कारण क्षणिकत्व का निर्विकल्प ज्ञान उसकी विकल्प वासना का उद्बोधक नहीं है, परन्तु नील पीत आदि में अभ्यास होने के कारण वासना उत्पन्न हो जाती है तो जैनाचार्य कहते हैं कि वह अभ्यास क्या है ? किसको कहते हैं अभ्यास ? बहुत बार किसी विषय का निर्विकल्प ज्ञान हो जाने को तो अभ्यास नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा अभ्यास तो जैसे नीलादि स्वलक्षणों में है उसी के समान क्षण क्षय आदि के दर्शन में भी विद्यमान है दोनों में अविशेषता होने से क्षण क्षयादिक के निर्विकल्प दर्शन में अभ्यास का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता / यदि कहो कि उन विकल्प ज्ञानों की उत्पत्ति हो जाना ही अभ्यास है तब तो क्षणिकत्व आदि के निर्विकल्प दर्शन में अभ्यास का अभाव है, यह कैसे कहा जा सकता है ? / ____ यदि विकल्प वासनाओं के अप्रबोधकत्व होने से क्षणक्षयादि दर्शन में अभ्यास का अभाव माना जाता है तो अन्योऽन्याश्रय दोष आता है, क्योंकि क्षणिकत्व आदि में होने वाले निर्विकल्प दर्शन को क्षणक्षयादि में वासना के जागृत करने का अभाव सिद्ध होने पर विकल्प के उत्पादक अभ्यास के अभाव की सिद्धि होती है और अभ्यास के अभाव की सिद्धि होने पर क्षणिकत्व में उत्पन्न निर्विकल्प दर्शन के विकल्प वासना के प्रबोधकत्व का अभाव सिद्ध होता है, अतः स्पष्टरूप से परस्पराश्रय दोष आता है। इस कथन से नील आदि से उत्पन्न निर्विकल्प दर्शन के उनकी विकल्प वासनाओं के प्रबोधकत्व रूप अभ्यासों से भी अन्योऽन्याश्रय दोष आता है-यह व्याख्यान कर दिया गया है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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