________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 199 ननु प्रमाणनयेभ्योधिगमस्याभिन्नत्वान्न तत्र तेषां करणत्वनिर्देश: श्रेयानित्यारेकायामाहप्रमाणेन नयैश्चापि स्वार्थाकारविनिश्चयः। प्रत्येयोऽधिगमस्तज्जैस्तत्फलं स्यादभेदभृत् // 28 // तेनेह सूत्रकारस्य वचनं करणं कृतः। सूत्रे यद्घटनां याति तत्प्रमाणनयैरिति // 29 // न हि प्रमाणेन नयैश्चाध्यवसायात्माधिगमः क्वचित्संभाव्यः क्षणक्षयादावपि तत्प्रसंगात् / व्यवसायजननः स्वयमध्यवसायात्माप्यधिगमो युक्त इति चेन्न, तस्य तज्जननविरोधात् / स्वलक्षणवत् बोधः स्वयमविकल्पकोपि विकल्पमुपजनयति न पुनरर्थ इति किंकृतो विभागः। पूर्वविकल्पवासनापेक्षादिविकल्पप्रतिभासाद्विकल्पस्योत्पत्तौ कथमर्थात्तादृशान्नोत्पत्तिः / यथा चाप्रतिभातादर्थात्तदुत्पत्तावतिप्रसंगस्तथा स्वयमनिश्चितादपि / यदि पुनरर्थदर्शनं प्रश्न : प्रमाण और नयों से अधिगम होना जब अभिन्न है, तब सूत्र में उन प्रमाण नयों को “प्रमाणनयैः" यह साधक सम रूप करण (तृतीया विभक्ति) का निर्देश करना श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् अधिगम के समान प्रमाण नय पद भी प्रथमान्त होना चाहिए इस प्रकार की शंका होने पर आचार्य कहते हैं : उत्तर : प्रमाण और नयों के द्वारा स्व और अपूर्व का निश्चय होता है-उस प्रमाण और नयों से अभिन्न निश्चय को प्रमाण और नयों के ज्ञाताओं को नयप्रमाण का फल समझना चाहिए। अर्थात् प्रमाण और नय पदार्थों के जानने के उपाय हैं और पदार्थों का निर्णय हो जाने रूप अधिगम प्रमाण तथा नय का फल है वह फल प्रमाण और नयों से अभिन्न है इसलिए सूत्र में सूत्रकार के वचन करणकृत हैं (तृतीया विभक्त्यन्त हैं) अत: सूत्र में “प्रमाणनयैः" यह तृतीयान्त विभक्ति घटित हो जाती है क्योंकि क्रियारूप फल प्रथमान्त होता है, उसका जनक कारण तृतीयान्त होता है और वह फल रूप क्रिया कारण से कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है।।२८-२९॥ | प्रमाण और नयों के द्वारा कहीं भी अनिश्चयात्मक ज्ञान होना (अधिगम होना) संभव नहीं है अर्थात् प्रमाण और नयों के द्वारा निश्चयात्मक अधिगम होता है। यदि उसके अधिगम को निश्चयात्मक नहीं मानते हैं तो क्षणक्षयी ज्ञान में भी प्रमाणता का प्रसंग आयेगा अर्थात् अनिश्चयात्मक क्षणक्षयी ज्ञान एवं निर्विकल्प ज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा। “अनध्यवसाय रूप निर्विकल्प अधिगम भी उत्तर क्षण में निश्चयात्मक का जनक हो जाता है अर्थात् अनिश्चयात्मक निर्विकल्प ज्ञान से उत्तर क्षण में पदार्थों का निश्चय हो जाता है" ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि स्वलक्षण के समान निर्विकल्प ज्ञान से निश्चयात्मक सविकल्प की उत्पत्ति होने का विरोध है। अथवा-स्वयं निर्विकल्प भी ज्ञान विकल्प उत्पन्न कर देता है, किन्तु निर्विकल्पक स्वलक्षण रूप अर्थ सविकल्प ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता है, यह विभाग किस नियम से किया गया है ? अर्थात् जैसे निर्विकल्प अर्थ से उत्पन्न ज्ञान बौद्ध मत में निर्विकल्प है, वैसे निर्विकल्प ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान भी निर्विकल्प होना चाहिए। यदि कहो कि पूर्वकालीन वासना के कारण (अपेक्षा से) निर्विकल्प प्रतिभास (ज्ञान) से विकल्प की उत्पत्ति होती है-तो पूर्वकालीन वासना के कारण निर्विकल्प पदार्थ से उत्पन्न ज्ञान सविकल्प क्यों नहीं होता है? जिस प्रकार निर्विकल्प ज्ञान से नहीं जाने गये अर्थ से विकल्प की उत्पत्ति मानने में अति