SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 198 त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वृत्तितः। केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते // 26 // परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात् केवलस्य तु / श्रुतमूला नया: सिद्धा वक्ष्यमाणा: प्रमाणवत् // 27 // यथैव हि श्रुतं प्रमाणमधिगमजसम्यग्दर्शननिबन्धनतत्त्वार्थाधिगमोपायभूतं मत्यवधिमनः पर्ययकेवलात्मकं च वक्ष्यमाणं तथा श्रुतमूला नया: सिद्धास्तेषां परोक्षाकारतया वृत्तेः। ततः केवलमूला नयास्त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वर्तनादिति न युक्तमुत्पश्यामस्तद्वत्तेषां स्पष्टत्व प्रसंगात्। न हि स्पष्टस्यांवधेर्मनः पर्ययस्य वा भेदाः स्वयमस्पष्टा न युज्यंते श्रुताख्य प्रमाणमूलत्वे तु नयानामस्पष्टावभासित्वेनाविरुद्धानां सूक्तं तेभ्यः प्रमाणस्याभ्यर्हितत्वात् प्राग्वचनम्॥ हैं। मन और इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ मानस मतिज्ञान भी सम्पूर्ण देश, काल के विषय को नहीं जान सकता। क्योंकि इन्द्रियों के योग्य विषय में अथवा उनकी जाति वाले अतीन्द्रिय विषयों में मानस मतिज्ञान प्रवर्तक होता है। त्रिकालगोचर सम्पूर्ण पदार्थों के अंशों में प्रवृत्ति करने वाले होने से उन नय ज्ञानों का केवलज्ञान को मूल कारण मानना भी युक्त नहीं है॥२६॥ क्योंकि केवलज्ञान स्पष्ट है, विशद है, प्रत्यक्ष है और नय परोक्षाकार से प्रवृत्त होते हैं अर्थात् परोक्ष विषय को ग्रहण करने वाले हैं अर्थात् यदि केवलज्ञान द्वारा ज्ञात पदार्थ में नय की प्रवृत्ति होगी तो नय भी प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायेंगे . अतः परिशेष न्याय से श्रुतज्ञान मूल ही नय सिद्ध होता है अर्थात् नय श्रुतज्ञान का भेद है। प्रमाण के समान नयों का वर्णन भी आगे विस्तार से करेंगे॥२७।। जिस प्रकार अधिगमज सम्यग्दर्शन के कारणभूत जीवादि तत्त्वार्थों के अधिगम का उपाय श्रुतज्ञान है और आगे कहे जाने वाले मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान प्रमाण सिद्ध हैं; उसी प्रकार श्रुत ज्ञान है मूल कारण जिन्होंका ऐसे आगे कहे जाने वाले नैगमादि नय भी जीवादि पदार्थों के जानने के उपाय हैं- यह सिद्ध है। उन नयों की परोक्षाकार (परोक्ष ज्ञान) से प्रवृत्ति होती है। जिस प्रकार प्रमाण पदार्थों के जानने का साधन है, वैसे नय भी वस्तु के जानने का साधन है। तीनों काल सम्बन्धी सम्पूर्ण पदार्थों के अंशों में प्रवृत्ति करने वाले होने से नयों का मूल कारण केवलज्ञान को माना जाये, इसको हम (जैनाचार्य) युक्त नहीं समझते हैं क्योंकि केवलज्ञान को नयों का मूल कारण मान लेने पर केवलज्ञान के समान नयों के भी स्पष्ट प्रतिभास का प्रसंग आता है। प्रश्न : विशद अवधि और मनःपर्यय ज्ञान के भेद नय हैं और स्वयं अस्पष्ट (अविशद) हैं। उत्तर : यह भी कथन युक्त नहीं है क्योंकि अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान के अंश नय नहीं हैं। परन्तु श्रुतज्ञान नामक प्रमाण को मूल मानकर होने वाले नयों के अस्पष्ट प्रतिभास में कोई विरोध नहीं है इसलिए श्रुतज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थों के अंश को अविशद रूप से जानने वाले अविरुद्ध नयों की अपेक्षा प्रमाण अधिक पूज्य है इसलिए प्रमाण का कथन पूर्व में करना ठीक ही कहा है अर्थात् पूज्य होने से प्रमाण शब्द का सूत्र में प्रथम प्रयोग किया है, यह वार्तिककार का कहना युक्त ही है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy