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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 195 नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः / स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः // 21 // प्रमाणादपरो नयोऽप्रमाणमेवान्यथा व्याघातः सकृदेकस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वनिषेधासंभवात् / प्रमाणत्वनिषेधेनाप्रमाणत्वविधानादप्रमाणप्रतिषेधेन च प्रमाणत्वविधेर्गत्यंतराभावादिति न चोद्यं, प्रमाणैकदेशस्य गत्यंतरस्य सद्भावात् / न हि तस्य प्रमाणत्वमेव प्रमाणादेकांतेनाभिन्नस्यानिष्टे प्यप्रमाणत्वं भेदस्यैवानुपगमात् देशदेशिनोः कथंचिद्भेदस्य साधनात् / येनात्मना प्रमाणं तदेकदेशस्य भेदस्तेनाप्रमाणत्वं येनाभेदस्तेन प्रमाणत्वमेवं शंका : इस प्रकार अप्रमाणात्मक नय मिथ्याज्ञान के समान जीवादि पदार्थों के अधिगम का उपाय कैसे हो सकता है ? अर्थात् जैसे अप्रमाण होने से मिथ्याज्ञान जीवादि पदार्थों के अधिगम का उपाय नहीं है उसी प्रकार नय भी अप्रमाण होने से जीवादि पदार्थों के अधिगम के उपाय नहीं हैं। समाधान : ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि नय ज्ञान प्रमाण भी नहीं है और अप्रमाण भी नहीं है अपितु प्रमाण का एकदेश है इसमें सर्वथा विरोध नहीं है // 21 // "स्याद्वाद सिद्धान्त में कथित प्रमाण से भिन्न नयज्ञान अप्रमाण ही है अन्यथा (यदि उसमें प्रमाण और अप्रमाण दोनों का निषेध करोगे तो) व्याघात दोष आयेगा / एक साथ एक ही पदार्थ का प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व रूप से निषेध करना असंभव है अर्थात् प्रमाण का निषेध करने पर अप्रमाण की सिद्धि हो जाती है, और ‘अप्रमाण नहीं है' ऐसा कहने पर प्रमाण की सिद्धि हो जाती है। एक समय में दोनों का निषेध नहीं हो सकता। क्योंकि गत्यन्तर का अभाव है।" जैनाचार्य कहते हैं कि नय के विषय में इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि प्रमाण के एक देश को जानने वाला नय है इस प्रकार गत्यन्तर (प्रमाण और अप्रमाण से रहित प्रमाण का एकदेश नय है इस) का सद्भाव है अर्थात् जैसे सर्वथा भेद और अभेद से भिन्न कथञ्चित् भेद-अभेद प्रशस्त मार्ग है उसी प्रकार सर्वथा प्रमाण और अप्रमाण से पृथक् तीसरा कथंचित् प्रमाणाप्रमाणात्मक नय ज्ञान व्यवस्थित है। उस नय ज्ञान को पूर्ण रूप से प्रमाण नहीं कह सकते, क्योंकि एकान्त रूप से प्रमाण से अभिन्न नय ज्ञान इष्ट नहीं है। तथा नय सर्वथा अप्रमाण भी नहीं है-क्योंकि एकान्त रूप से नय ज्ञान को प्रमाण से सर्वथा भिन्न स्वीकार नहीं किया है अपितु देश और देशवान में कथञ्चित् भेद स्वीकार किया है। अर्थात् एकदेश को ग्रहण करने वाले नय में और सर्वदेश को ग्रहण करने वाले प्रमाण में कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद कोई कहता है-जिस रूप (जिस अपेक्षा से) नय ज्ञान प्रमाण से भिन्न है, भेदस्वरूप है उस अपेक्षा से वह अप्रमाण है। और जिस अपेक्षा नयज्ञान प्रमाण से अभिन्न (अभेद) रूप है, उस अपेक्षा से वह प्रमाण है। जैनाचार्य कहते हैं- इस प्रकार कहना क्या हमको अनिष्ट है ? नहीं, अपितु इष्ट ही है क्योंकि जैन सिद्धान्त में नय किसी अपेक्षा प्रमाणात्मक हैं और किसी अपेक्षा प्रमाणात्मक नहीं हैं। अत: नय ज्ञान में एकदेश से प्रमाणपना और अप्रमाणपना दोनों इष्ट हैं। सर्वथा नयज्ञान के प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व का निषेध किया
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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