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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 194 यथांशो न वस्तु नाप्यवस्तु / किं तर्हि ? वस्त्वंश एवेति मतं, तथांशी न वस्तु नाप्यवस्तु तस्यांशित्वादेव वस्तुनोंशांशिसमूहलक्षणत्वात् / ततोंशेष्विव प्रवर्तमानं ज्ञानमंशिन्यपि नयोस्तु नोचेत् यथा तत्र प्रवृत्तं ज्ञानं प्रमाणं तथांशेष्वपि विशेषाभावात् / तथोपगमे च न प्रमाणादपरो नयोस्तीत्यपरः॥ . तन्नांशिन्यपि निःशेषधर्माणां गुणतागतौ / द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः॥ 19 // धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विदः / प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः // 20 // गुणीभूताखिलाशेंशिनि ज्ञानं नय एव तत्र द्रव्यार्थिकस्य व्यापारात् / प्रधानभावार्पितसकलांशे तु प्रमाणमिति नानिष्टापत्तिरंशिनोत्र ज्ञानस्य प्रमाणत्वेनाभ्युपगमात् / ततः प्रमाणादपर एव नयः। नन्वेवमप्रमाणात्मको नयः कथमधिगमोपायः स्यान्मिथ्याज्ञानवदिति च न चोद्यं / यस्मात् जिस प्रकार अंश वस्तु भी नहीं है और अवस्तु भी नहीं है, अपितु वस्तु का एक अंश है, ऐसा स्याद्वाद सिद्धान्त में माना गया है, उसी प्रकार अंशी भी वस्तु नहीं है और न अवस्तु है, क्योंकि वह अंशी है। वस्तु तो अंशी और अंश का समूह है अर्थात् अंशी और अंशियों से पृथक् अंश और अंशी का समूह वस्तु है अत: जैसे अंशों में प्रवर्तक ज्ञान को नय मानते हैं उसी प्रकार अंशी को ग्रहण करने वाले ज्ञान को भी नय मानना चाहिए। यदि अंशी में प्रवर्तक ज्ञान को नय नहीं मानते हैं तो, अंश में प्रवर्तक ज्ञान को भी नय नहीं मानना चाहिए क्योंकि दोनों में कोई विशेषता नहीं है अर्थात् वस्तु के अंगभूत अंश और अंशी में जानने की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। ___ तथा एक-एक अंश को जानने वाले ज्ञान को भी प्रमाण मान लेने पर प्रमाण से भिन्न दूसरा नय ज्ञान नहीं है, ऐसा कोई वादी कहता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नय का लोप करना उचित नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण धर्मों को गौणता रूप से तथा अंशी को प्रधान रूप से जानना इष्ट होने पर (स्वीकार करने पर) मुख्य रूप से द्रव्यार्थिक नय का व्यापार माना गया है, प्रमाण का नहीं किन्तु जब धर्म और धर्मी दोनों के समूह को प्रधानता की विवक्षा से जानना अभिप्रेत होता है तब ज्ञान को प्रमाणपने से निर्णय किया जाता है। इसलिए प्रमाण से भिन्न नय ज्ञान है // 19-20 // भावार्थ : गौण और मुख्यता से अंशी और अंश को जानने वाला नय कहलाता है-और अंशअंशी दोनों को प्रधान रूप से जानने वाला प्रमाण कहलाता है। अंश जिसमें गौणभूत है-अर्थात् जिसमें अंश की अपेक्षा नहीं है ऐसे अंशी का विषय करने वाला ज्ञान नय कहलाता है क्योंकि उसमें विषय को जानने के लिए द्रव्यार्थिक नय का व्यापार (प्रवृत्ति) है। तथा प्रधान रूप सकल अंश है जिसमें ऐसे अंशी का ग्राहक ज्ञान प्रमाण है इसमें अनिष्ट की आपत्ति नहीं है क्योंकि यहाँ प्रधान अंश वाले अंशी ज्ञान के ज्ञान को प्रमाण रूप से स्वीकार किया है अत: अंशी को जानने वाला (एकदेश वस्तु को ग्रहण करने वाला) नय सकलादेशी प्रमाण से भिन्न है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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