________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 193 स्वांशेष्वंशिन: प्रत्येकं कात्स्येन वृत्तौ बहुत्वमेकदेशेन सावयवत्वमनवस्था चेति न दूषणं सम्यक्त्वस्य स्वांशेभ्यो भिन्नस्यानभ्युपगमात् / कथंचित्तादात्म्यपरिणामस्य प्रसिद्धेस्तस्यैव समवायत्वेन साधनात् / नवांशांशिनोस्तादात्म्यात्तादात्म्ये विरुद्ध प्रत्यक्षतस्तथोपलंभाभावप्रसंगात् / न च तथोपलंभोनुमानेन बाध्यते तस्य तत्साधनत्वेन प्रवृत्तेः / तथाहि-ययोर्न कथंचित्तादात्म्यं तयोर्लीशांशिभावो यथा सह्यविन्ध्ययोः, अंशांशिभावश्चावयवावयविनोधर्मधर्मिणोर्वा स्वेष्टयोरिति नैकांतभेदः / तदेवं परमार्थतोंशांशिसद्भावात्सूक्तं वस्त्वंश एव तत्र च प्रवर्तमानो नयः / स्वाथैकदेशव्यवसायफललक्षणो नयः प्रमाणमिति कश्चिदाह;यथांशिनि प्रवृत्तस्य ज्ञानस्येष्टा प्रमाणता। तथांशेष्वपि किं न स्यादिति मानात्मको नयः॥१८॥ “स्वकीय अंशों में अंशी की पूर्ण रूप से वृत्ति मानने पर जितने अंश हैं उतने प्रत्येक अंशी हो जाते हैं अर्थात् अंश के समान अंशी भी बहुत हो जायेंगे। अंशी को अंश के साथ एकदेश रूप सम्बन्ध मानने पर अनवस्था दोष आता है अर्थात् शेष अंशों की वृत्ति के होने की आकांक्षा समाप्त नहीं होती है।" इस प्रकार का दूषण स्याद्वाद में घटित नहीं हो सकता, क्योंकि स्याद्वादी अवयवी को अवयवों से सर्वथा भिन्न स्वीकार नहीं करते हैं। अंश और अंशी के सम्बन्ध को कथञ्चित् तादात्म्य परिणाम ही प्रसिद्ध है तथा उस तादात्म्य सम्बन्ध को ही समवाय सम्बन्ध सिद्ध किया गया है, अर्थात् तादात्म्य सम्बन्ध ही कथञ्चित् समवाय सम्बन्ध से सिद्ध है। अंश और अंशी के कथञ्चित् तादात्म्य और कथञ्चित् अतादात्म्य दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध नहीं हैं। यदि अंश अंशी के तादात्म्य सम्बन्ध को विरुद्ध मानते हैं तो प्रत्यक्ष के द्वारा अंश और अंशी के भिन्न और अभिन्न रूप से प्रतिभास होने के अभाव का प्रसंग आयेगा परन्तु अंश और अंशी का कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न प्रतिभास होना अनुमान प्रमाण से बाधित नहीं है अपितु, अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष ज्ञान का साधक होकर प्रवृत्ति कर रहा है। - अब अनुमान से कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध की सिद्धि करते हैं। जिन पदार्थों में कथंचित् तादात्म्य नहीं है, उनमें अंशी, अंशपना भी नहीं है। जैसे सह्याचल और विंध्याचल में अंश और अंशी भाव नहीं है, परन्तु अवयव और अवयवी में अपने को इष्ट धर्म और धर्मी में अंश-अंशी भाव है अत: उनमें कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध है। उन अंशअंशी में, गुण-गुणी में एकान्त से भेद नहीं है अतः परमार्थ रूप से अंश, अंशी का सद्भाव होने से "विकलादेशी वाक्य का विषय वस्तु का अंश है" यह कथन समीचीन है। वह अंश अवस्तु नहीं है उस अंश, अंशी के भेद में प्रवृत्त होने वाला नय है अर्थात् स्व और अर्थ के एकदेश का निर्णय करने वाला वस्तु के अंश का ग्राहक नय कहलाता है। ___ कोई कहता है कि अपने स्तरूप और विषय रूप अर्थ के एकदेश का निर्णय करना रूप फल है लक्षण जिसका ऐसा नय ज्ञान प्रमाण ही है, प्रमाण से भिन्न नहीं है ? जिस प्रकार अंशी में प्रवर्तक ज्ञान की प्रमाणता इष्ट है (ज्ञान प्रमाण है) उसी प्रकार अंशों में प्रवृत्ति करने वाले नय ज्ञानों के भी स्वार्थ ग्राहकपना होने से प्रमाणपना क्यों नहीं है ? इसलिए नय भी प्रमाणात्मक है॥१८॥