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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 196 स्यादिति चेत् किमनिष्टं देशतः प्रमाणप्रमाणत्वयोरिष्टत्वात् , सामस्त्येन नयस्य तन्निषेधात् समुद्रैकदेशस्य तथासमुद्रत्वासमुद्रत्वनिषेधवत् / कात्स्येंन प्रमाणं नयः संवादकत्वात्स्वेष्टप्रमाणवदिति चेन्न , अस्यैकदेशेन संवादकत्वात् कात्स्न्र्येन तदसिद्धेः / कथमेवं प्रत्यक्षादेस्ततः प्रमाणत्वसिद्धिस्तस्यैकदेशेन संवादकत्वादिति चेन्न , कतिपयपर्यायात्मकद्रव्ये तस्य तत्त्वोपगमात् / तथैव सकलादेशित्वप्रमाणत्वेनाभिधानात् सकलादेशः प्रमाणाधीन इति / न च सकलादेशित्वमेव सत्यत्वं विकलादेशिनो नयस्यासत्यत्वप्रसङ्गात् / न च नयोपि सकलादेशी , विकलादेशो नयाधीन इति वचनात् / नाप्यसत्यः सुनिश्चितासंभवद्वाधत्वात् प्रमाणवत् / ततः सूक्तं सकलादेशि प्रमाणं विकलादेशिनो नयादभ्यर्हितमिति सर्वथा विरोधाभावात्॥ प्रमाणेन गृहीतस्य वस्तुनोंशेविगानतः / संप्रत्ययनिमित्तत्वात्प्रमाणाच्चेन्नयोर्चितः // 22 // नाशेषवस्तुनिर्णीतेः प्रमाणादेव कस्यचित् / तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात् सन्नयस्यापि सर्वदा // 23 // है। जैसे घट में भरा हुआ समुद्र का जल न समुद्र है और न असमुद्र है अपितु समुद्र का अंश है उसी प्रकार नय न प्रमाण है और न अप्रमाण है अपितु प्रमाण का एक अंश है। ___ “नय सम्पूर्ण रूप से प्रमाण है, समीचीन ज्ञप्ति कराने वाला होने से", जैसे अपने को इष्ट प्रत्यक्ष आदि ज्ञान समीचीन ज्ञप्ति कराने वाले होने से प्रमाण हैं, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि इस नय के एकदेश से संवादकत्व (समीचीन ज्ञप्ति कराना) है; सम्पूर्ण रूप से नय के संवादकत्व की असिद्धि है। "इस प्रकार स्मृति आदि प्रत्यक्ष ज्ञान में भी प्रमाणपना कैसे आ सकता है क्योंकि उनमें भी एक देश संवादकत्व है" ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि कुछ पर्यायात्मक द्रव्य में प्रवर्तक उस प्रत्यक्ष स्मृति आदि ज्ञान के सम्पूर्णता से संवादकत्व इष्ट किया है। उसी प्रकार सकल वस्तु का कथन करने वाले वाक्य को प्रमाण रूप से स्वीकार किया है क्योंकि सकलादेश प्रमाणाधीन है। इति। ___ “सकलादेशित्व (प्रमाण) ही सत्य है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर विकलादेशी नय ज्ञान के असत्यपने का प्रसंग आता है। __ तथा नयज्ञान को सकलादेशी कहना भी उचित नहीं है क्योंकि “विकलादेशो नयाधीनः, विकलादेश नय के आधीन है"- यह आगम वाक्य है। एकदेश वस्तु का कथन करने वाला नय असत्य भी नहीं है, क्योंकि प्रमाण ज्ञान की सत्यता के समान बाधक प्रमाणों की निश्चयरूप से असंभवता होने से नय ज्ञान सत्यस्वरूप है। इसलिए “विकलादेशी नय से सकलादेशी प्रमाण पूज्य है" यह कहना श्रेष्ठ है। क्योंकि इसमें सर्वथा विरोध का अभाव है। ___ “प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के अंश में निर्दोष रूप से प्रतीति का निमित्त होने के कारण प्रमाण की अपेक्षा नय पूजनीय है अथवा नय के द्वारा ज्ञात विषय में उत्पन्न संशय को दूर करके समीचीन ज्ञप्ति कराने वाला होने से नय ज्ञान प्रमाण से भी अधिक पूज्य है" ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि किसी भी प्रमाण के अशेष वस्तु की निर्णीति (निर्णय) प्रमाण (ज्ञान) से ही होती है। अशेष वस्तु के समीचीन निर्णय कराने का सामर्थ्य नयज्ञान में नहीं है। नय ज्ञान सर्वदा सम्पूर्ण वस्तु के निर्णय करने के सामर्थ्य से शून्य है॥२२-२३॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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