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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*१८८ स्यादितिमतं / तदसत् / क्षणिकत्वे वेदनस्येदानीमनुभवामीति प्रतीतौ पूर्वं पश्चाच्च तथा प्रतीतिविरोधात् / तदविरोधे वा कथमनाद्यनंतरसंवेदनसिद्धिर्न भवेत् / सर्वदेदानीमनुभवामीति प्रतीतिरेव हि नित्यता सैव च वर्तमानता तथाप्रतीतेविच्छेदाभावात् / ततो न क्षणिकसंवेदनसिद्धिः / इदानीमेवानुभवनं स्पष्टं न पूर्वं न पश्चादिति प्रतीतेः क्षणिकं संवेदनमितिचेत्, स्यादेवं यदि पूर्वं पश्चाद्वानुभवस्य विच्छेदः सिद्ध्येत् / न चासौ प्रत्यक्षतः सिद्ध्यति तदनुमानस्य वैफल्यप्रसंगात्, पश्यन्नपीत्यादिग्रंथस्य विरोधात् / प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पादिदानीमनुभवनं ममेति निश्चयानोक्तग्रंथविरोधः। तद्बलादिदानीमेवेत्यनिश्चयाच्च नानुमाने नैष्फल्यं ततस्तथा निश्चयादिति चेत्, नैतत्सारं / प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्येदानीमनुभवो मे न पूर्वं पश्चाद्वेति विधिनिषेधविषयतयानुत्पत्तौ वर्तमानमात्रानुभवव्यवस्थापकत्वायोगात् / पश्यन्नपीत्यादिविरोधस्य सर्वथा क्षणिक स्वीकार करते हैं तो “इस समय मैं अनुभव कर रहा हूँ" इस प्रकार की प्रतीति में वा पूर्व उत्तर काल में इस प्रकार की प्रतीति होने का विरोध आता है। यदि क्षणिक होते हुए भी पूर्वोत्तर काल में स्पष्ट अनुभव होने में कोई विरोध नहीं है, ऐसा मानते हो तो अनादि अनन्त संवेदन की सिद्धि कैसे नहीं होगी ? तथा इस समय वर्तमान काल में 'मैं अनुभव कर रहा हूँ' इस प्रकार निरंतर प्रतीति होते रहना ही नित्यत्व है और वही वर्तमानपना है, क्योंकि इस प्रकार की प्रतीति के विच्छेद का अभाव है। इसलिए क्षणिक संवेदना की सिद्धि नहीं है। बौद्ध कहता है कि इस समय वर्तमान काल में ही स्पष्ट अनुभव हो रहा है, पूर्व और पश्चात् (भूत और भविष्यत्) का नहीं है, इस प्रकार की प्रतीति से क्षणिक संवेदन ही होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार का बौद्ध का कथन तो तब सिद्ध हो सकता है कि यदि स्पष्ट अनुभव का पूर्वोत्तर काल के परिणामों से व्यवधान सिद्ध हो जाता है, किन्तु वह व्यवधान प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं हो रहा है, ऐसी दशा में मध्यवर्ती अकेले क्षणिक ज्ञान का स्पष्ट अनुभव कैसे माना जा सकता है? यदि अन्तराल प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, तो अनुमान के निष्फलता का प्रसंग आता है। तथा “पश्यन्नपि न पश्यति' देखता हुआ भी नहीं देख रहा है अर्थात् भूत और भविष्यत् क्षणों के अन्तराल को प्रत्यक्ष देखता हुआ भी नहीं देखता है" बौद्ध के इस ग्रन्थ वाक्य का विरोध भी आता है। यदि कहो कि प्रत्यक्ष ज्ञान के पृष्ठभावी विकल्प ज्ञान से “इस समय मुझ को स्पष्ट अनुभव है" इस प्रकार निश्चय हो जाता है, अत: उक्त ग्रन्थ में विरोध नहीं आता है तथा उस प्रत्यक्ष और विकल्प के सामर्थ्य से “इसी समय अनुभव है" ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता है- अतः अनुमान में भी निष्फलता नहीं है क्योंकि “इस समय मुझे अनुभव हो रहा है" इस प्रकार का निश्चय अनुमान से होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि यह बौद्ध का कथन सार रहित है क्योंकि प्रत्यक्ष का पृष्ठभावी विकल्प ज्ञान “इस समय मुझको स्पष्ट अनुभव हो रहा है, पूर्वोत्तर क्षणों का स्पष्ट अनुभव नहीं है" इस प्रकार के विधि और निषेध को विषय करता हुआ संवेदन ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है इसलिए केवल वर्तमान कालीन संवेदन की व्यवस्था करने का अयोग है अर्थात् संवेदन केवल वर्तमान को ही जानता है यह नियम घटित नहीं होता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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