________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 187 व्यवस्थितिर्बहिरर्थवत्संवेदना। द्वैतस्य ग्राह्यग्राहकाकारविवेकेन स्वयं प्रकाशनादित्यपरः / तस्यापि सन्तानान्तराद्यभावोऽनुभाव्यः , संवेदनस्य स्यादन्यथा तस्याद्वयस्याप्रसिद्धः। स्वानुभवनमेव संतानांतराद्यभावानुभवनं संवेदनस्येति च न सुभाषितं, स्वरूपमात्रसंवेदनस्यैवासिद्धिः / न हि क्षणिकानंशस्वभावं संवेदनमनुभूयते, स्पष्टतयानुभवनस्यैव क्षणिकत्वात्। क्षणिकं वेदनमनुभूयत एवेति चेत् न, एकक्षणस्थायित्वस्याक्षणिकत्वस्याभिधानात् / अथ स्पष्टानुभवनमेवैकक्षणस्थायित्वं अनेकक्षणस्थायित्वे तद्विरोधात् / तत्र तदविरोधे वानाद्यनंतस्पष्टानुभवप्रसंगात्। तथा चेदानीं स्पष्टं वेदनमनुभवामीति प्रतीतिर्न परिणाम कथंचित् भिन्न है। उसी प्रकार करण स्वरूप बुद्धि से भाव रूप अनुभव किसी अपेक्षा भिन्न है अत: ग्राह्य और ग्राहक अंशों से रिक्तपने स्वरूप से स्वयं बुद्धि ही प्रकाशित होती है, ऐसा नहीं है। इसका सारांश यह है कि विषय के साथ बुद्धि स्वयं अपने को भी उसी समय जान लेती है। इसलिए संवेद्य, संवेदक और संवेदन तीनों अंश एक साथ ज्ञान (बुद्धि) में प्रतिबिम्बित होते हैं। अपर (शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी) कहते हैं कि बहिरंग अर्थ के समान अन्य संतानों की और अपने संतानों की भी व्यवस्था भले ही नहीं होवे, यह हमको इष्ट है, होना इष्ट नहीं है। क्योंकि ग्राह्य ग्राहक भाव के आकारों से पृथग्भाव करके अकेले संवेदनाद्वैत का स्वयं प्रकाश हो रहा है। अर्थात् “विचिर् पृथग्भावे' विचिर् धातु से निष्पन्न विवेक शब्द का अर्थ पृथग्भाव है और “विचिल विचारणे' धातु से निष्पन्न विवेक शब्द का अर्थ जानना है अत: यहाँ पृथग्भाव अर्थ इष्ट है। . जैनाचार्य कहते हैं कि इस बौद्ध सिद्धान्त के भी अन्य संतान, आदि का अभाव तो संवेदन के द्वारा अवश्य अनुभव कराने योग्य है अन्यथा (यदि सन्तानान्तर आदि के अभाव को यदि ज्ञेय नहीं माना जाएगा तो) सन्तानान्तर आदि की सत्ता सिद्ध हो जाने से अद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती है। . अपने स्वरूप का अनुभव करना ही संवेदन का सन्तानान्तर आदि के अभाव का अनुभव करना है अर्थात्-संवेदन से अभाव कोई भिन्न पदार्थ नहीं है-जो कि अनुभाव्य हो। संवेदनाद्वैत का यह कथन भी सुभाषित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर केवल स्वरूप का वेदन करने वाले संवेदन की सिद्धि भी नहीं है और न क्षणिक निरंश स्वभाव वाले संवेदन का अनुभव भी होता है। ___स्पष्ट ज्ञान क्षणिक पदार्थ का ही होता है। स्पष्ट रूप से अपना अनुभव हो जाना ही क्षणिकपना है, इसलिए एक क्षणवर्ती अद्वैत संवेदन का अनुभव हो रहा है ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि एक क्षण स्थित रहने का अर्थ ही अक्षणिकत्व का अभिधान है अर्थात् एक क्षण स्थित को ही अक्षणिक कहते हैं। क्षणवर्ती ज्ञान, पदार्थ, संवेदन आदि बौद्धमत का खण्डन ___अथवा स्पष्ट का अनुभव होना ही एक क्षण स्थायित्व है। उस ज्ञान को अनेक क्षण स्थायी मानना विरुद्ध है। यदि पुन: अनेक क्षण स्थायी का भी स्पष्ट अनुभव होने में विरोध नहीं मानोगे तो अनादिकाल से अनन्त काल तक के ज्ञान क्षणों का स्पष्ट रूप से अनुभव होने का प्रसंग आयेगा, अर्थात् सभी त्रिकालदर्शी हो जायेंगे, तथा इस समय मैं क्षण मात्र स्थित स्पष्ट संवेदन का अनुभव कर रहा हूँ, इस प्रकार की प्रतीति नहीं होती है। इस प्रकार बौद्ध का कथन भी असत् है (प्रशंसनीय नहीं है) क्योंकि यदि ज्ञान को