________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 186 संतानांतरसिद्धिप्रसंगात्। तथा च संतानांतरं स्वसंतानश्चानुमानबुद्ध्यानुभाव्यो न पुनर्बहिरर्थ इति कुतो विभाग: सर्वथाविशेषाभावात् / विवादापन्ना बहिरर्थबुद्धिरनालंबना बुद्धित्वात् स्वप्नादिबुद्धिवदित्यनुमानादहिरर्थोननुभाव्यो बुद्ध्या सिद्ध्यति न पुनः संतानांतरं / स्वसंतानश्चेति न बुद्ध्यामहे, स्वप्नसंतानांतरस्वसंतानबुद्धेरनालंबनत्वदर्शनादन्यथापि तथात्वसाधनस्य कर्तुं शक्यत्वात् / बहिरर्थग्राह्यतादूषणस्य च संतानांतरग्राह्यतायां समानत्वात् तस्यास्तत्र कथंचिदूषणत्वे बहिरर्थग्राह्यतायामप्यदूषणत्वात् कथं ततस्तत्प्रतिक्षेप इत्यस्त्येव बुद्ध्यानुभाव्यः / एतेन बुद्धेर्बुद्ध्यंतरेणानुभवोपि परोस्तीति निश्चितं ततो न ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं बुद्धिरेव प्रकाशते / माभूत् संतानांतरस्य स्वसंतानस्य वा क्षणिक बुद्धि केवल स्व को ही जानती है। इस प्रकार बौद्धों का कथन भी निस्सार है क्योंकि इस प्रकार मानने पर स्वसंतान के समान अन्य संतानों के भी सिद्धि होने का प्रसंग आता है। तथा अनुमान ज्ञान से अन्य संतान और स्वसंतान को अनुभव कराने योग्य स्वीकार किया जाय और बहिरंग अर्थ को ज्ञेय नहीं माना जाय, इस प्रकार का विभाग कैसे किया जा सकता हैं ? क्योंकि स्वसन्तान, पर संतान और बाह्य ज्ञेय पदार्थों में अनुमान से जानने की योग्यता में कोई विशेष अन्तर नहीं है। बौद्ध कहते हैं “विवाद में प्राप्त हुई बहिरंग अर्थों को जानने वाली बुद्धि स्वकीय जानने योग्य विषय रूप आलम्बन से रहित है (साध्य)। क्योंकि वह बुद्धि है (हेतु), जैसे स्वप्नावस्था में होने वाली बुद्धि अपने विषयभूत अर्थों से रहित है। इस अनुमान से बहिरंग अर्थ तो बुद्धि द्वारा अनुभव में नहीं आने योग्य सिद्ध किया जाता है किन्तु दूसरे संतान और पूर्वोत्तर क्षण में होने वाली स्वसंतान को जानने वाली बुद्धियाँ आलम्बन रहित हैं ऐसा नहीं कहा जाता है। जैनाचार्य कहते कि हम नहीं समझते हैं कि ऐसी पक्षपात की कृति में क्या रहस्य हैं ? क्योंकि स्वप्न, अन्य सन्तान और स्व संतान को जानने वाली बुद्धि के निर्विषयपना दृष्टिगोचर होने से अन्य जागृत आदि अवस्था में भी वस्तुभूत स्व पर संतानों के ज्ञान को भी उसी प्रकार निर्विषयपना सिद्ध करना शक्य हो सकता है, तथा बहिरंग अर्थ की ग्राह्यता में दिये गये दूषण का सन्तानान्तर के ग्राह्यपने में भी समानता है अर्थात् सन्तानान्तर के जानने में भी दूषण आता है। क्योंकि जैसे क्षणिक बुद्धि केवल अपने स्वरूप को ही जानती है बहिरंग अर्थ को नहीं जानती है, इसलिए बहिरर्थ का ग्राह्यपना यदि कथंचित् दूषण सहित है तो वह संतानान्तर भी तो बहिर्भूत अर्थ है। यदि उस सन्तानान्तर के ग्राह्यपने में उस बहिरर्थ की ग्राह्यता में दूषण नहीं है तो बहिरर्थ की ग्राह्यता में भी बुद्धि से बहिर्भूत अर्थ का जान लेना भी दूषित नहीं होगा। तथा ऐसा होने पर नील परमाणु आदि बहिर्भूत अर्थों का निराकरण आप कैसे कर सकेंगे ? अर्थात् नहीं कर सकते अत: बुद्धि के द्वारा सन्तानान्तर या बहिर्भूत अर्थ अवश्य ही अनुभव कराने योग्य हैं। इस प्रकार बौद्ध कथित कारिका के “नान्योऽनुभाव्यो बुद्ध्यास्ति' इस प्रथम पाद का खण्डन किया गया है। इस पूर्वोक्त कथन से यह भी निश्चित हो चुका है कि दूसरी बुद्धि से प्रकृव बुद्धि का अनुभव भी पृथक् है अर्थात् स्वयं बुद्धि से अपना अनुभव भी कथंचित् भिन्न है, जैसे अग्नि की दाहकत्व शक्ति से दाह