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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 185 ततो बुद्धिरेव स्वयं प्रकाशते ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् / तदुक्तं / “नान्योनुभाव्यो बुद्ध्यास्ति तस्या नानुभवोऽपरः। ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते // " इति // अत्रोच्यते;नान्योनुभाव्यो बुद्ध्यास्ति तस्या नानुभवोपरः। ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सा न प्रकाशते // 13 // न हि बुद्ध्यान्योनुभाव्यो नास्ति संतानांतरस्याननुभाव्यत्वानुषंगात् / कुतश्चिदवस्थितेरयोगात् / तदुपगमे च कुतः स्वसंतानसिद्धिः ? पूर्वोत्तरक्षणानां भावतोननुभाव्यत्वात् / स्यादाकूतं / यथा वर्तमानबुद्धिः स्वरूपमेव वेदयते न पूर्वामुत्तरां वा बुद्धिं संतानांतरं बहिरर्थं वा / तथातीतानागता च बुद्धिस्ततः स्वसंविदितः स्वसंतानः स्वसंविदितक्रमवर्त्यनेकबुद्धिक्षणात्मकत्वादिति / तदसत् / वर्तमानया बुद्ध्या पूर्वोत्तरबुद्ध्योरवेदनात् स्वरूपमात्रवेदित्वानिश्चयात् / ते चानुमानबुद्ध्या वेद्यते / स्वरूपमात्रवेदिन्यावित्यप्यसारं / आज तक किसी को भी ग्राह्य, गाहक, ग्रहीति अंशों से रहित बुद्धि का प्रतिभास नहीं हुआ है। अत: बुद्धि के द्वारा अनुभाव्य (ग्राह्य) का प्रकाश ग्रहीति होना मान लेना चाहिए अर्थात् बुद्धि से जानने योग्य पदार्थ पृथक् है। उनका अनुभव भी बुद्धि से कथंचित् भिन्न है। ग्राह्य ग्राहक स्वभावों से सहित बुद्धि सदा प्रकाशित होती है।॥१३॥ - बुद्धि के द्वारा कोई अन्य विषय अनुभव कराने योग्य नहीं है, यह नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर सन्तान से अतिरिक्त दूसरी सन्तानों को अनुभव में नहीं प्राप्त होने का प्रसंग आता है। बुद्धि के अतिरिक्त किसी भी अन्य उपाय से दूसरे संतानों की व्यवस्था नहीं हो सकती है। बुद्धि के द्वारा अन्य सन्तानों को नहीं जानने योग्यपने को स्वीकार करने पर स्व संतान की सिद्धि भी कैसे हो सकती है ? क्योंकि अन्य संतानों के समान अपने संतान के पूर्वोत्तर क्षणों में होने वाले क्षणिक परिणामों को भी वास्तविक रूप से अनुभाव्यपना नहीं है अर्थात् बुद्धि स्वकीय पूर्वोत्तर क्षणवर्ती परिणामों (पर्यायों) को प्रकाशित नहीं करती है इसलिए बुद्धि के द्वारा ज्ञेय न होने के कारण अन्य संतानों का जैसे अभाव कर दिया जाता है, वैसे स्वसंतान का भी अभाव हो जायेगा और न एक समयवर्ती पर्याय ही सिद्ध हो सकेगी। ___ शंका : जैसे वर्तमान कालीन बुद्धि स्वस्वरूप का ही वेदन करती है, पूर्वोत्तर क्षणवर्ती स्वकीय बुद्धि रूप परिणामों (पर्यायों) का तथा अन्य संतानों का अथवा घट, पट आदि बहिरंग अर्थों का ज्ञान नहीं कराती है (क्योंकि ज्ञेय पदार्थों के काल में ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है और ज्ञान काल में ज्ञेय नहीं रहते हैं)। इसी प्रकार भूत और भावी काल में परिणत बुद्धि स्वकीय क्षणवर्ती स्वरूप को ही जान सकती है। ___इसलिए स्वकीय ज्ञान धारा रूप सन्तान तो स्वसंवेदन के द्वारा जानने योग्य है क्योंकि वह स्वसंतान स्वसंवेदन से ज्ञात और क्रम-क्रम से होने वाले बुद्धि के क्षणिक परिणामों का समुदाय है अतः अपनी ज्ञानधारा तो बुद्धि के द्वारा अनुभाव्य है। समाधान : इस प्रकार बौद्ध के द्वारा स्वंसतान की सिद्धि कर देने पर जैनाचार्य कहते हैं-बौद्धों का यह कथन प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर वर्तमान कालीन बुद्धि के द्वारा पूर्वोत्तर क्षणवर्ती बुद्धि क्षणों का ज्ञान नहीं हो सकता है। वह बुद्धि केवल स्वरूप को ही जानती है इसका निश्चय नहीं है अर्थात् क्षणसमयवर्ती बुद्धि द्वारा स्वकीय वेदन जानने योग्य है, ऐसा कैसे जाना जा सकता है ? अनुमान रूपी बुद्धि के द्वारा पूर्वोत्तर क्षणवर्ती बुद्धि क्षणों का ज्ञान कर लिया जाता है। और वह
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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