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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 184 तस्य हेतुत्वेनाप्यनुभाव्यत्वसाधने नयनादिनानेकांतात् / स्वाकारार्पणक्षमेणापि तेन तत्साधने समानार्थसमनंतरप्रत्ययेन व्यभिचारात् तेनाध्यवसायसहितेनापि तत्साधने भ्रांतज्ञानसमनंतरप्रत्ययेनानेकांतात्। तत्त्वतः कस्यचित्तत्कारणत्वाद्यसिद्धेश्च / नापि समानकालस्तस्य स्वतंत्रत्वात्, योग्यताविशेषस्यापि तद्व्यतिरिक्तस्यासंभवात् तस्याप्यनुभाव्यत्वासिद्धेः / परेण योग्यताविशेषेणानुभाव्यत्वेनवस्थानात्, प्रकारांतरासंभवाच्च / नापि बुद्धाहकत्वेन परोनुभवोस्ति, सर्वथानुभाव्यवदनुभावकस्यासंभवे तदघटनात् / किन्तु स्वतन्त्र दोनों के एक काल में विद्यमान होने पर अनुभाव्य अनुभावक भाव नहीं बन सकता है। यदि समान काल वाले पदार्थों में भी किसी दूसरे योग्यता विशेष से अनुभाव्यपना माना जावेगा तो उस योग्यता विशेष का भी उस शुद्ध ज्ञान से अतिरिक्त होना असम्भव है अत: उस योग्यता विशेष को भी अनुभाव्यपना असिद्ध है। यदि इस योग्यता विशेषको दूसरे योग्यताविशेष से अनुभाव्यपना माना जावेगा तब तो अनवस्था दोष आता है अर्थात् बुद्धि में ही अनुभावकपने की योग्यता है, विषय में नहीं और विषय में अनुभाव्यपने की योग्यता है, बुद्धि में नहीं। इसके नियम कराने के लिए पुन: दूसरी योग्यता की आवश्यकता पड़ेगी, इस प्रकार दूसरी योग्यता की व्यवस्था करने के लिए तीसरी विशेष योग्यता की आवश्यकता बढ़ती जायेगी। यह अनवस्था दोष हुआ। यह प्रकारान्तर संभव भी नहीं है विशेष यह है कि शुद्ध द्वैतवादियों के यहाँ जब बुद्धि से अतिरिक्त कोई भिन्नकाल या समकाल में रहने वाला पदार्थ ही नहीं माना गया है तो बुद्धि से निराला अनुभव कराने योग्य कौन हो सकता है ? अतः उस योग्यताविशेष की भी सिद्धि नहीं हो सकती है। बुद्धि के ग्राहकत्व से अतिरिक्त कोई दूसरा अनुभव भी नहीं है। सर्वथा अनुभाव्य पदार्थ के समान अनुभव करने वाले ज्ञान के असम्भव हो जाने पर वह अनुभव होना घटित नहीं होता है (अर्थात् दो पदार्थों में अनुभाव्य और अनुभावकपना घटित होता है, अकेले शुद्ध ज्ञान में अनुभावक द्वारा अनुभाव्य का अनुभव होता है, इस प्रकार करण, कर्म और क्रिया का विवेचन असम्भव है)। अत: अकेली शुद्ध बुद्धि ही स्वयं प्रकाशमान होती रहती है। क्योंकि वह ग्राह्य और ग्राहकत्व से रहित है। स्याद्वाद में स्वीकृत ज्ञान में ग्राह्य अंश और ग्राहक अंश हमको इष्ट नहीं है। सो ही कहा है कि बुद्धि के द्वारा उससे भिन्न पदार्थ अनुभव कराने योग्य नहीं है, तथा बुद्धि से भिन्न उसका फल कोई अनुभव भी नहीं है। ग्राह्यभाव और ग्राहक भावों से सर्वथा रहित होने से बुद्धि स्वयं ही अकेली प्रकाशित रहती है (मूल ग्रन्थ में बुद्धि का विशेषण ग्राह्यग्राहक विवेक है। यहाँ विवेक शब्द विचारने अर्थ में प्रसिद्ध विचष्ट्र धातु से बनाया जाता है। तब तो जैनों के समान सौत्रान्तिक पण्डित बुद्धि में ग्राह्यग्राहक अंशों को स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु पृथग्भाव अर्थ को कहने वाली 'विचिर्' धातु से विवेक शब्द को बनाकर वैभाषिक बौद्ध बुद्धि में ग्राह्य ग्राहक अंशों का अभाव मानते हैं)। जैनाचार्य ज्ञान को सांश सिद्ध करने के लिए कहते हैं। बौद्धों की कारिका में से ही एव के स्थानों में न को रखकर एक अक्षर का परिवर्तन कर आचार्य बौद्धमत के निराकरण करने के लिए सार्थ वार्तिक कहते हैं कि बुद्धि के द्वारा कोई ज्ञेयरूप अनुभाव्य नहीं है और बुद्धि को कोई पृथक् अनुभव रूपी फल नहीं है। ऐसी दशा में ग्राह्यग्राहक भावों से रिक्त होने के कारण वह बुद्धि स्वयं कभी प्रकाशमान नहीं हो सकती ह किन्तु तीनों अंशों से तदात्मक बुद्धि सदा प्रकाशित रहती है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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