SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 183 न हि स्वसंविदिं प्रतिभासमानस्य विज्ञानप्रचयस्य भ्रांततायां किंचित्स्वसंवेदनमभ्रांतं नाम यतस्तदेव प्रत्यक्षं सिद्ध्येत् / विज्ञानपरमाणोः संवेदनं तदितिचेत् न, तस्य सर्वदाप्यप्रवेदनात् / सर्वस्य ग्राह्यम्राहकात्मनः संवेदनस्य सिद्धेः / स्यान्मतं / न बुद्ध्या कश्चिदनुभाव्यो भिन्नकालोस्ति सुप्रसिद्धभिन्नकालाननुभाव्यवत् / स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में स्पष्ट रूप से प्रतिभासमान अंशीरूप विज्ञान समुदाय को भ्रान्त मानने पर कोई भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भ्रांतिरहित प्रमाणात्मक कैसे हो सकता है जिससे कि योगाचार के द्वारा माना गया वह स्वसंवेदन ही एक प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध हो सके। क्षणिक विज्ञान के परमाणु का स्वकीय ज्ञान होना ही वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। यह भी कहना उचित नहीं है। उस विज्ञान के परमाणु का सब कालों में वेदन नहीं होता है क्योंकि सभी जीवों को यहाँ ग्राह्य और ग्राहकरूप संवेदन की सिद्धि हो रही है। शंका : उत्तर क्षण में ज्ञान को उत्पन्न करने वाला पूर्वक्षणवर्ती भिन्न काल में रहने वाला कोई भी पदार्थ बुद्धि के द्वारा अनुभव करने योग्य नहीं है। जैसे कि सुप्रसिद्ध चिरंतर भूत या भविष्यत् भिन्न कालों में रहने वाले पदार्थ वर्तमान बुद्धि के ज्ञेय नहीं हैं, वैसे ही अव्यवहित, पूर्व समय में रहने वाला जनक पदार्थ भी बुद्धि का ज्ञेय नहीं है (बुद्धि स्वयं बुद्धि को ही जानती रहती है, अन्य को नहीं)। यदि उस पूर्व समयवर्ती विषय को बुद्धि का कारणपना होने से उसके द्वारा ज्ञेयपना सिद्ध करोगे तो चक्षु, पुण्य-पाप, आदि से व्यभिचार दोष आयेगा क्योंकि चक्षु, पुण्य, पाप ये विज्ञान के कारण हैं किन्तु इनसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अतीन्द्रिय चक्षु और कर्मों के क्षयोपशम को नहीं जान सकता। . अतः ज्ञान का कारणभूत विषय तज्जन्यज्ञान से जाना ही जाता है, यह व्याप्ति बनाना उचित नहीं है। इस दोष को दूर करने के लिए तजन्य के साथ अपने आकार को देने में समर्थ ज्ञेय यदि सौत्रान्तिक के द्वारा माना जावेगा अर्थात् इन्द्रियाँ अदृष्टज्ञान की जनक अवश्य हैं, किन्तु ज्ञान में अपने आकारों का समर्पण नहीं करती हैं अत: ज्ञान इनको नहीं जानता है। घट, पट आदिक विषय तो अपने आकारों को ज्ञान के लिए अर्पण कर देते हैं, अतः ज्ञान उन घट आदि को जान लेता है। इस प्रकार अपने आकार को सौंप देने की सामर्थ्य से वह अनुभाव्यपंना यदि सिद्ध करते हैं, तो समान अर्थ के अव्यवहित उत्तर कालवर्ती ज्ञान से व्यभिचार आता है, अर्थात् उत्तर कालवर्ती पदार्थ भी आकार को अर्पण करने से अनुभाव्य हो जायेंगे अतः सिद्ध होता है कि तज्जन्यपना, तदाकारपना और तदध्यवसायपना ये तीनों मिलकर भी बुद्धि के द्वारा अनुभाव्यपने का नियम नहीं करा सकते हैं। वास्तव में विचारा जाय तो किसी भी क्षणिक परमाणुरूप विज्ञान में उस बुद्धि का कारणपना, आकार देनापना और निर्णय करानापन आदि सब कार्य असिद्ध ही हैं अतः विषयविषयीभाव वास्तविक नहीं है। केवल बुद्धि (विज्ञान) ही एक पदार्थ है। बुद्धि के आगे पीछे रहने वाले भिन्नकालीन पदार्थ उस बुद्धि के द्वारा अनुभव कराने योग्य नहीं हैं। क्योंकि समान काल में रहने वाले दोनों पदार्थ अपने-अपने कारणों से उत्पन्न होकर वर्तमान में स्वतन्त्र हैं। ऐसी दशा में किसको विषयरूप कारण कहा जाय और किसको विषयी रूप कार्य कहा जाय ? कार्य को करते समय एक (कारण) स्वतंत्र हो और दूसरा (कार्य) परतन्त्र हो, तब कार्यकारण भाव हो सकता है। सौत्रान्तिकों ने ज्ञाप्यज्ञापक भाव में भी यही व्यवस्था मानी है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy