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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 180 सकलावयववेदनपुरःसरत्वे तस्य परमाणुनामवयवानामवेदनेन तदारब्धशताणुकादीनां वेदनानुषंगादभिमतपर्वतादेरपि वेदनानुपपत्तेः / एतेन द्वितीयपक्षोपाकृतः, कतिपयपरमाणुवेदने तदवेदनानुपपत्तेरविशेषात् / तृतीयपक्षे तु सकलावयवशून्ये देशेवयविवेदनप्रसंगस्ततो नावयविनः स्पष्टज्ञानेन वित्तिः / यतः स्पष्टज्ञानवेद्यत्वं तत्त्वत: सिद्ध्येत् / इत्यपि प्रतीतिविरुद्धं, सर्वस्य हि स्थवीयानर्थ: स्फुटतरमवभासत इति प्रतीतिः॥ अवयवियों के कपाल, तन्तु आदिक अवयव भी तो अतीव स्थूल होने के कारण अवयवी हैं अतः उन अवयवरूप अवयवियों का ज्ञान भी पहले सम्पूर्ण कपालिका, छोटे तन्तु आदि सम्पूर्ण अवयवों का ज्ञान हो जाने पर ही होगा। इस प्रकार षडणुक, पञ्चाणुक आदि के क्रम से परमाणु रूप अवयवों तक वेदन के द्वारा पहुँचना पड़ेगा। अन्त में प्राप्त हुए परमाणु रूप अवयवों का ज्ञान नहीं होने के कारण उनसे मिलाकर बनाये गये परमाणुओं के शताणुक आदिकों का ज्ञान न हो सकेगा। इस प्रसंग की आपत्ति होने से अभीष्ट बड़े पर्वत, समुद्र आदिक अवयवियों का भी ज्ञान होना न बन सकेगा अर्थात् परमाणुओं का ज्ञान न होने से व्यणुक का और व्यणुक का न होने से त्र्यणुक का भी ज्ञान न हो सकेगा। इस प्रकार कारणभूत नीचे के अवयवों का ज्ञान न होने से कार्यरूप ऊपर के महाअवयवी का ज्ञान न हो सकेगा। इस कथन से जैनों के दूसरे पक्ष का भी खण्डन हो जाता है। द्वितीय पक्ष के अनुसार कितने ही एक परमाणुओं का अस्मदादिक हम लोगों को ज्ञान होता नहीं है अत: किसी भी अवयवी का ज्ञान होना बन नहीं सकता। पहले और दूसरे पक्ष में कछ परमाणओं का ज्ञान करना तो आवश्यक है, किन्तु जैन मतानुसार परमाणुओं का ज्ञान नहीं होता है। अतः, उनसे बने हुए अवयवी का ज्ञान न हो सकने रूप दोष दोनों पक्षों में समानरूप से लागू हो जाता है; कोई अन्तर नहीं है। तीसरा पक्ष ग्रहण करने पर तो सम्पूर्ण अवयवों से रहित देश में अवयवी के ज्ञान होने का प्रसंग होगा अर्थात् अवयवों का सर्वथा ज्ञान हुए बिना ही जब अवयवी का ज्ञान होने लगेगा तो जहाँ घट, पट आदिक का अंशमात्र भी नहीं है, वहाँ भी घट,पट, पर्वत आदिक का ज्ञान हो जाना चाहिए अत: जैनों के यहाँ अवयवी की स्पष्ट ज्ञान द्वारा प्रतीति नहीं हो सकती है। जिससे कि स्पष्ट ज्ञान से ज्ञात हेतु वास्तविक रूप से सिद्ध होवे। यानी अवयवी को वास्तविक सिद्ध करने के लिए जैनों के द्वारा कहा गया स्पष्टज्ञान वेद्यपना हेतु अवयवी में न रहने के कारण असिद्ध हेत्वाभास है। अब जैन आचार्य कहते हैं कि बौद्ध का यह कथन लोकप्रसिद्ध प्रतिभासित प्रतीतियों से विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि अतीव स्थूल, घट, पट, पर्वत आदि अर्थ अधिक स्पष्टपने से प्रतिभासित हो रहे हैं। यह प्रतीति सब जीवों को निश्चय से हो रही है अतः भेद अथवा संघात या उभय से उत्पन्न हुए स्थूल अवयवी का स्पष्ट ज्ञान होना प्रतीति सिद्ध है। बौद्ध कहता है कि अधिक स्थूल आकार को दिखलाने वाली यह इन्द्रियजन्य ज्ञप्ति भ्रान्तिरूप है। ___जैसे कि अनेक धान्यों के समुदाय को एक राशि मान लेना विपर्ययज्ञान है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर इन्द्रियों से उत्पन्न निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान भ्रान्तिरहित सिद्ध होवेगा। परस्पर अति प्रत्यासन्न
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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