________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 181 भ्रांतिरिंद्रियजेयं चेत्स्थविष्ठाकारदर्शिनी / क्वाभ्रांतमिंद्रियज्ञानं प्रत्यक्षमिति सिद्ध्यतु // 9 // प्रत्यासन्नेष्वयुक्तेषु परमाणुषु चेन्न ते / कदाचित्कस्यचिद्बुद्धिगोचराः परमात्मवत् // 10 // सर्वदा सर्वथा सर्वस्येंद्रियबुध्यगोचरान् परमाणूनसंस्पृष्टान् स्वयमुपयंस्तत्रंद्रियजं प्रत्यक्षमभ्रांतं कथं ब्रुयात् , यतस्तस्य स्थविष्ठाकारदर्शनं भ्रांतं सिद्ध्येत् / कयाचित् प्रत्यासत्त्या तानिंद्रियबुद्धिविषयानिच्छत् कथमवयविवेदनमपाकुर्वीत सर्वस्यावयव्यारंभक परमाणूनां कात्य॑तोऽन्यथा वा वेदनसिद्धेस्तद्वेदनपूर्वकावयविवेदनोपपत्तेः सहावयवावयविवेदनोपपत्तेर्वा नियमाभावात् / यदि पुनर्न परमाणव: कथंचित्कस्यचिदिंद्रियबुद्धेर्गोचरा नाप्यवयवी / न च तत्रंद्रियजं प्रत्यक्षमभ्रांतं सर्वमालंबते, भ्रांतमितिवचनात्। परन्तु एक दूसरे से असंयुक्त ऐसे अनेक सूक्ष्म परमाणुओं में इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान अभ्रान्त प्रत्यक्ष है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि अतीन्द्रिय होने के कारण परमशुद्ध आत्मा का कभी किसी को जैसे इन्द्रिय जन्य ज्ञान गोचर नहीं होता है, वैसे ही वे सूक्ष्म अतीन्द्रिय परमाणु भी कभी किसी भी जीव के बुद्धि के गोचर नहीं हो सकते, अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकते॥९-१०॥ परस्पर अबद्ध परमाणु सदा सर्व प्रकार से सभी जीवों के इन्द्रियजन्य विषय नहीं होते हैं, ऐसा स्वयं स्वीकार करने वाला मनुष्य उन परमाणुओं में इन्द्रियों से उत्पन्न हुए प्रत्यक्षज्ञान को अभ्रान्त कैसे कह सकता है? जिससे कि उन बौद्धों के यहाँ अत्यन्त स्थूल आकारवाले अवयवी का दीखना भ्रान्त सिद्ध हो सके। यदि बौद्ध किसी सम्बन्ध विशेष से उन परमाणुओं का इन्द्रियजन्य ज्ञान में विषय पड़ जाना स्वीकार करते हैं, तब तो स्थूल अवयवी के प्रत्यक्ष होने का खण्डन कैसे कर सकते हैं ? सभी वादियों के यहाँ अवयवी को बनाने वाले परमाणुओं का सम्पूर्णरूप से अथवा अनुमान द्वारा दूसरे प्रकार से ज्ञान होना सिद्ध है। पहले उन परमाणुरूप अवयवों का ज्ञान करके पीछे अवयवी का ज्ञान होना सिद्ध हो जाता है। अथवा एक साथ भी अवयव और अवयवी का ज्ञान हो सकता है। कोई एकान्त रूप से नियम नहीं है अर्थात् इन्द्रियगोचर अवयवों का ज्ञान होकर पीछे अवयवी का ज्ञान हो जाता है, जैसे कि तन्तुओं को देखकर पट का ज्ञान हो जाता है। तथा अवयव और अवयवी दोनों का ज्ञान एक साथ भी हो सकता है (स्याद्वादियों के जैन सिद्धान्त में अवयव और अवयवी के प्रत्यक्ष करने में नैयायिक या सांख्यों के समान एकान्तवाद नहीं है)। यदि फिर परमाणु किसी भी प्रकार किसी के भी इन्द्रियजन्य ज्ञान के विषय नहीं हैं और अवयवी भी किसी के ज्ञान से नहीं जाना जाता है तथा उनमें उत्पन्न हुआ इन्द्रियजन्य भ्रान्ति रहित प्रत्यक्ष ज्ञान भी ठीक ठीक सभी विषयों को आलम्बन नहीं करता है क्योंकि बहिरंग विषयों को जानने वाले सम्पूर्ण ज्ञान भ्रान्त हैं, ऐसा हमारे शास्त्रों का कथन है। सभी ज्ञानों का विषयभूत कोई आलम्बन कारण नहीं है जिसको कि ज्ञान द्वारा जाना जाये। इस प्रकार योगाचार या वैभाषिक बौद्धों का कथन हो तो जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों ने प्रत्यक्ष का लक्षण कल्पना भ्रान्ति से रहित स्वीकार किया है, वह वचन व्यर्थ ही हो जावेगा क्योंकि अपने विचारानसार तो किसी भी प्रत्यक्ष ज्ञान का होना सम्भव नहीं है। सौत्रान्तिक बौद्धों ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, 1. बुद्ध्यगोचर-यह पाठ शुद्ध प्रतीत होता है।