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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 179 / तच्च न कल्पनारोपितत्वें संभवतीति तस्यानारोपितत्वसिद्धेः / ननु स्पष्टज्ञानवेद्यत्वं नावयविनो अनारोपितत्वं साधयति कामिन्यादिना स्पष्टभावनातिशयजनिततद्विकल्पवेद्येन व्यभिचारादिति चेन्न, स्पष्टसत्यज्ञानवेद्यत्वस्य हेतुत्वात् / तथा स्वसंवेद्येन सुखादिनानैकांत इत्यपि न मंतव्यं, कल्पनानारोपितत्वस्याक्षजत्वस्य साध्यतयानभ्युपगमात् / परमार्थसत्त्वस्यैव साध्यत्वात् / ननु परमार्थसतोवयविनः स्पष्टज्ञानेन वेदनं सर्वावयववेदनपूर्वकं कतिपयावयववेदनपूर्वकं वावयवावेदनपुरःसरं वा ? न तावदाद्यः पक्षः सर्वदा तदभावप्रसंगात् , किंचिज्ज्ञस्य सर्वावयववेदनासंभवात् / तदवयवानामपि स्थवीयसामवयवित्वेन प्रकरण में अवयवी का विकल्पज्ञान बाधकरहित प्रतीतियों से सम्यग्ज्ञान स्वरूप सिद्ध हो रहा है। उसकी स्पष्टता भी स्वयं अपने आप हो रही है अत: अंशी का अंश के समान स्पष्ट ज्ञान से जानना सिद्ध होता है। यदि अंशी को कल्पना से आरोपित मान लिया जाय तो वह स्पष्ट ज्ञान से जानना भी नहीं हो सकता। अतः उस अंशी के वास्तविक होने के कारण कल्पनाओं से अनारोपितपना सिद्ध है अर्थात् अंश के समान अंशी भी स्पष्ट ज्ञान से वेद्य होने के कारण कल्पना मनगढन्त नहीं है, अपितु अंशी या अवयवी वास्तविक पदार्थ हैं। शंका : स्पष्टज्ञान से ज्ञात हेतु अवयवी का अनारोपितपना सिद्ध नहीं करा सकता है। क्योंकि विशद रूप भावना के अतिशय से उत्पन्न हुए उन विकल्पज्ञानों के द्वारा जाने गये कामिनी, पिशाच, आदि से हेतु व्यभिचारी हो जाता है। भावार्थ : स्पष्ट ज्ञान से वेद्यत्व कामिनी आदि में है परन्तु वहाँ अनारोपितपना नहीं है। अत: जैसे कामिनी आदिक कल्पित हैं, वैसे ही अवयवी कल्पित है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि हमारे हेतु के शरीर में सत्यशब्द निविष्ट है, वास्तविक स्पष्टपना सत्यज्ञान में ही माना गया है। जो स्पष्ट रूप से सत्यज्ञान के द्वारा जाना जाता है वह अनारोपित (वास्तविक) अवश्य होता है; इसमें कोई व्यभिचार दोष नहीं है, तथा हमारे हेतु का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जान लिये गये सुख, इच्छा आदि से व्यभिचार आयेगा, यह भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियजन्य कल्पना अनारोपितपने को हमने साध्य नहीं स्वीकार किया है, जिससे कि सुख आदि में साध्य के न रहने से हेतु व्यभिचारी होता, किन्तु वास्तविक रूप से विद्यमान को ही हम साध्य कह रहे हैं। शंका : जैनों के द्वारा स्वीकृत वास्तविक सत्रूप अवयवी का स्पष्ट ज्ञान के द्वारा जो वेदन होता है वह सम्पूर्ण अवयवों का पहले ज्ञान होकर पश्चात् उत्पन्न होता है ? अथवा कितने ही अवयवों को पहले जानकर पीछे पूरे अवयवी का ज्ञान होता है ? या पूर्व में किसी भी अवयव को न जानकर झट अवयवी का ज्ञान हो जाता है। इन तीन पक्षों में से पहले आदि का पक्ष ग्रहण करना तो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सदा ही उस अवयवी के अभाव का प्रसंग आता है। सर्वज्ञ के ही सम्पूर्ण सूक्ष्म, स्थूल, अवयवों का ज्ञान होना बन सकता है। अल्पज्ञ के सम्पूर्ण अवयवों का ज्ञान होना असम्भव है। उन घट, पट, आदिक
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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