________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 176 नन्वक्षव्यापारेंशा एव परमसूक्ष्माः संचिताः प्रतिभासंते त एव स्पष्ट ज्ञानवेद्याः के वलप्रतिभासानंतरमाश्वेवांशिविकल्पः प्रादुर्भवन्नक्षव्यापारभावीति लोकस्य विभ्रमः, सविकल्पाविकल्पयोर्ज्ञानयोरेकत्वाध्यवसायाधुगपद्वत्तेलघुवृत्तेर्वा / यदांशदर्शनं स्पष्टं तदैव पूर्वांशदर्शनजनितांशिविकल्पस्याभावात् / तदुक्तं / “मनसोयुगपवृत्तेस्सविकल्पाविकल्पयोः / विमूढो लघुवृत्तेर्वा तयोरैक्यं व्यवस्यति" इति। तदप्ययुक्तं / विकल्पेनास्पष्टेन सहैकत्वाध्यवसाये निर्विकल्पस्यांशदर्शनस्यास्पष्टत्वप्रतिभासनानुषंगात् / स्पष्टप्रतिभासेन दर्शनेनाभिभूतत्वाद्विकल्पस्य स्पष्टप्रतिभासनमेवेति चेत् न, अश्वविकल्पगोदर्शनयोर्युगपवृत्तौ तत एवाश्वविकल्पस्य स्पष्टप्रतिभासप्रसंगात्। शंका : इन्द्रियों का व्यापार होने पर अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु अंश ही एकत्रित हुए प्रतिभासित होते हैं क्योंकि वे अंश ही स्पष्ट (विशद) ज्ञान के द्वारा जानने योग्य हैं, परन्तु केवल प्रतिभास के अन्तर अंशों की ज्ञप्ति शीघ्र ही अंशी की कल्पना को उत्पन्न करती है। जिससे अंशी का ज्ञान इन्द्रियों के व्यापार से हुआ है, ऐसा जन समुदाय को भ्रम होता है। __ अर्थात् इन्द्रिय व्यापार से अंशों का निर्विकल्प ज्ञान होता है और शीघ्र ही वासना के कारण अंशों में अंशी की कल्पना कर ली जाती है। अतः भ्रान्तिवश अंशी के ज्ञान को इन्द्रियजन्य कह देते हैं। उनको यह विवेक नहीं है कि-अंशी को जानने वाले सविकल्प (मिथ्या) ज्ञान और अंश को जानने वाले निर्विकल्प (सम्यग्) ज्ञान में एक साथ वृत्ति होने से अथवा घूमते हुए चक्के के समान अतिशीघ्रता पूर्वक लघु वृत्ति होने से अंश अंशी में एकत्व का अध्यवसाय (निश्चय) हो रहा है अतः जिस समय अंश का दर्शन स्पष्ट होता है, उस समय पूर्वांश के देखने से उत्पन्न अंशी के विकल्प ज्ञान का अभाव हो जाता है अर्थात् विकल्प ज्ञान तो कल्पना से कर लिया जाता है। बौद्ध ग्रन्थ में इस प्रकार कहा भी है कि- “मूर्ख जन ही मन की युगपत् (अंशी और अंश में एक साथ) वृत्ति होने से अथवा चक्र भ्रमण के समान लघु (शीघ्र) वृत्ति होने से सविकल्प और निर्विकल्प ज्ञान में एकत्व का निर्णय कर लेते हैं। वस्तुतः इन्द्रियों से अंशी का सविकल्प ज्ञान नहीं हो सकता। समाधान : ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है ? क्योंकि अविशद अवस्तुरूप विकल्प ज्ञान के साथ यदि निर्विकल्प अंश दर्शन का एकत्व आरोपित किया जायेगा तो अंश को जानने वाले निर्विकल्प ज्ञान के भी अविशद रूप से प्रतिभास करने का प्रसंग आयेगा, तथा स्पष्ट प्रतिभासक, निर्विकल्प दर्शन के द्वारा तिरोभूत (आच्छादित) विकल्प ज्ञान का भी आरोपित स्पष्ट प्रतिभास हो जायेगा। ऐसा कहना उचित नहीं है-क्योंकि अश्व (घोड़े) का विकल्प ज्ञान और गाय का निर्विकल्प दर्शन इन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होने पर अश्व के विकल्प का स्पष्ट प्रतिभास (विशद निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान) होने का प्रसंग आएगा अर्थात् तिरोभूत करने वाला गोदर्शन अश्व के विकल्प को आच्छादित करके उसका निर्विकल्प प्रतिभास करा देगा। बौद्ध का अभिमत है कि-गोदर्शन और अश्व विकल्प का भिन्न विषय होने से गौ के निर्विकल्प दर्शन के द्वारा अश्व का तिरोभाव नहीं हो सकता। जैनाचार्य कहते हैं कि “एकविषयत्व होने पर विकल्प ज्ञान का