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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 175 सांवृतत्वादिति चेत्, जलाहरणाद्यर्थक्रियापि संवृत्त्यैकास्तु तदविशेषात् / तथोपगमे कथं तत्त्वतो भिन्नदेशानामणूनामेकस्यामर्थक्रियायां प्रवृत्तेः समानदेशता ययोत्पादेतिशयस्तैस्तत्रापेक्षते। तदनपेक्षाश्च कथं साधारणाद्यर्थक्रियाहेतवोतिप्रसंगादिति न घटादिव्यवहारभाजः स्युः। न चायं घटायेकत्वप्रत्यय: सांवृतः स्पष्टत्वादक्षजत्वाद्वाधकाभावाच्च यतस्तदेकत्वं पारमार्थिकं न स्यात् / ततो युक्तांशिनोर्थक्रियायां शक्तिरंशवदिति नासिद्धं साधनं स्पष्टज्ञानवेद्यत्वाच्च नांशी कल्पनारोपितोंशवत् / नन्वंशा एव स्पष्टज्ञानवेद्या नांशी तस्य प्रत्यक्षेऽप्रतिभासनादिति चेत् न, अक्षव्यापारे सत्ययं घटादिरिति संप्रत्ययात् / असति तदभावात् / संवृत्ति (व्यवहार) से अवयवी होता है, क्योंकि उन अनेक अवयवों में एकपने का ज्ञान उपचार से कल्पित है, ऐसा कहने पर तो सौगत के द्वारा स्वीकृत जल लाना आदि अर्थक्रिया भी कल्पित व्यवहार से एक हो जाना चाहिए, क्योंकि संवृत्ति (व्यवहार) से एकपने के ज्ञान में कोई विशेषता नहीं है। वस्तुत: जल लाना आदि अर्थक्रियायें भी अनेक ही हैं। व्यवहार में अर्थक्रियाओं के एकत्व को स्वीकार कर लेने पर वास्तविक रूप से भिन्न-भिन्न देश में रहने वाले परमाणुओं की एक अर्थक्रिया में प्रवृत्ति होने से समानदेशत्व कैसे सिद्ध होगा। जिस समान देशता से उत्पादितातिशय उन परमाणु के द्वारा अपेक्षणीय होता है और समानदेशता से उत्पादित अतिशयों की अपेक्षा नहीं रखने वाले परमाणु अनेक परमाणुओं के द्वारा साधारण रूप से साध्य जल लाना आदि अर्थक्रिया के कारण कैसे हो सकते हैं ? यदि अतिशय रहित परमाणु जल लाना अर्थक्रिया में प्रवृत्ति करेंगे तो अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् अतिशय रहित बालू रेत के परमाणु भी जलधारण आदि क्रिया के करने में समर्थ हो जायेंगे अतः अतिशयों (घटादि होने योग्य योग्यता) से रहित परमाणु घट आदि व्यवहार के धारक नहीं हो सकते है। ___किंच-घटादि के अवयवों के एकत्व का ज्ञान सांवृत्त (कल्पित) नहीं है, क्योंकि घटादि के अवयवों के एकत्व का ज्ञान विशद है, इन्द्रियजन्य है और बाधक प्रमाण से रहित है जिससे कि उस अवयवी का एकपना पारमार्थिक नहीं हो सकता हो अर्थात् प्रमाण ज्ञान से अवयवी में एकपना वस्तुभूत सिद्ध है। अतः अंशी (अवयवी) की अर्थक्रिया करने में सामर्थ्य मानना युक्त (ठीक) ही है, जैसे अंश (अवयव) अपनी योग्य क्रिया को करता है, अत: अर्थक्रिया करने में समर्थ रूप हेतु असिद्ध हेत्वाभास नहीं है। तथा-स्पष्ट (विशद प्रत्यक्ष) ज्ञान के द्वारा संवेद्य (जानने योग्य) होने से अंश के समान (परमाणु के समान) अंशी (घटादि स्कन्ध) कल्पना से आरोपित नहीं हैं। शंका : अंश ही स्पष्ट (विशद प्रत्यक्ष) ज्ञान के द्वारा संवेद्य (जानने योग्य) हैं; अंशी स्पष्ट ज्ञान से नहीं जाना जाता है, क्योंकि अंशी का प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रतिभास नहीं होता है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि चक्षु इन्द्रियों के व्यापार में (चक्षु आदिक इन्द्रियों के विषय में) घटादि अंशी का ज्ञान होता है, अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा घट,पट, काले, मोटे आदि जाने जाते हैं और इन्द्रियों का व्यापार नहीं होने पर उनका ज्ञान नहीं होता है अत: अंशी इन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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