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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *174 / सर्वेषामेकपरमाणुमात्रत्वप्रसंगात् सर्वात्मना परस्परानुप्रवेशादन्यथैकदेशत्वायोगादिति चेत् / का पुनरियमेका जलाहरणाद्यर्थक्रिया? यस्यामुपयुज्यमाना भिन्नदेशवृत्तयोप्यणवः समानदेशाः स्युः / प्रतिपरमाणुभिद्यमाना हि सानेकैव युक्ता भवतामन्यथानेकघटादिपरमाणुसाध्यापि सैका स्यादविशेषात् / सत्यं / अनेकैव सा जलाहरणाद्याकारपरमाणूनामेव तत् क्रियात्वेन व्यवहरणात् / तद्व्यतिरेकेण क्रियाया विरोधात् केवलमेककार्यकरणादेकत्वेनोपचर्यत इतिचेन्न, तत्कार्याणामप्येकत्वासिद्धेस्तत्त्वतोनेकत्वेनोपगतत्वात् स्वकीयैककार्यकरणात् तत्कार्याणामेकत्वोपगमे स्यादनवस्था तत्त्वतः सुदूरमपि गत्वा बहूनामेकस्य कार्यस्यानभ्युपगमात् / तदुपगमे वा नानाणूनामेकोवयवी कार्यं किं न भवेत्। यदि पुनरेकतया प्रतीयमानत्वादेंकैव जलाहरणाद्यर्थक्रियोपेयते तदा घटाद्यवयवी तत एवैकः किं न स्यात् ? संवृत्त्यास्तु तदेकत्वप्रत्ययस्य इस प्रकार बौद्धों के कहने पर जैन आचार्य कहते हैं कि यह अनेक परमाणुओं के साधन से उत्पन्न एक जलाहरण आदि अर्थक्रिया क्या है ? जिसमें उपयोगी भिन्न-भिन्न देशों में रहते हुए भी परमाणु समान देश वाले कहे जाते हैं ? बौद्धों ने प्रत्येक परमाणु के प्रति भिन्न-भिन्न होने वाली अर्थक्रिया को अनेक ही माना है। अन्यथा अनेक परमाणुओं की यदि एक ही अर्थक्रिया हो सके तो घट आदिक के अनेक परमाणुओं से साध्य भी वह अर्थक्रिया एक हो जावेगी, इसमें कोई अन्तर नहीं है। अर्थात्- अनेक परमाणुओं से जैसे एक जल लाने रूप अर्थक्रिया हो सकती है, उसी प्रकार अनेक परमाणुओं से एक अवयवी घट भी बन सकता है, हमारे और आपके मन्तव्य में कोई विशेषता नहीं है। बौद्ध कहते हैं कि आप जैनों का कथन सत्य है, वह अनेक परमाणुओं से की गई जल लाना रूप क्रिया अनेक ही है, जल लाना आदि आकार वाले परमाणुओं का ही उस क्रिया रूप से व्यवहार होता है। जितने परमाण है, उतनी ही तद्रप क्रियायें हैं। उन परमाणओं से भिन्न होकर क्रिया का विरोध है अतः केवल अनेक अर्थक्रियायें एक कार्य करने से एकपने से व्यवहृत (उपचरित) हो जाती हैं, वस्तुत: वे अनेक हैं। जैनाचार्य कहते हैं, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उन अनेक परमाणुओं के जल लाना रूप अनेक कार्यों को भी एकपना असिद्ध है, क्योंकि वास्तविक रूप से वे कार्य बौद्धों के यहाँ अनेकपने से स्वीकार भी किये गये हैं। यदि उन कार्यों को भी अपने-अपने द्वारा सम्पादित हुए एक कार्य करने की अपेक्षा से एकपना स्वीकार करोगे तब तो अनवस्था दोष आयेगा क्योंकि अनेक कार्यों के बनाये गये कार्य भी वस्तुत: अनेक हैं, फिर उनके भी कार्य अनेक ही होंगे। बहुत दूर भी जाकर अनेक अर्थों से उत्पन्न हुआ वस्तुत: एक कार्य बौद्धों ने नहीं माना है। यदि बौद्ध अनवस्था दोष को हटाने के लिए उत्तरवर्ती अनेक कार्यों से अन्त में जाकर उस एक कार्य का होना स्वीकार कर लेंगे तब तो नाना परमाणुओं का कार्य एक अवयवी क्यों न होगा? अर्थात् एक अवयवी सिद्ध हो जाता है। यदि एकपने से प्रतीति का विषय होने के कारण जल लाना आदि अर्थक्रिया एक ही मान ली जाती है यानी एक परमाणु से यद्यपि अनेक क्रियायें होती हैं, फिर भी अनेक में एकत्व धर्म रहता है, अतः वे सब एक हैं, ऐसा माना जाता है; तब तो घट आदि अवयवी भी एक क्यों नहीं हो जावेंगे ? यदि केवल
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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