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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 173 सामर्थ्यानुपपत्तेर्घटादेरेव तंत्र सामर्थ्यात् परमार्थसिद्धेः। परमाणवो हि तत्र प्रवर्तमाना: कंचिदतिशयमपेक्षन्ते न वा ? न तावदुत्तर: पक्षः सर्वदा सर्वेषां तत्र प्रवृत्तिप्रसंगात् / स्वकारणकृतमतिशयमपेक्षत एवेति चेत् , क: पुनरतिशयः ? समानदेशतयोत्पाद इति चेत् , का पुनस्तेषां समानदेशता ? भिन्नदेशानामेवोपगतत्वात् जलाहरणाद्यर्थक्रियायोग्यदेशता तेषां समानदेशता नान्या, यादृशि हि देशे स्थितः परमाणुरेकस्तत्रोपयुज्यते तादृशि परेपि परमाणवः स्थितास्तत्रैवोपयुज्यमानाः समानदेशा: कथ्यते न पुनरेकत्र देशे वर्तमाना, विरोधात् उत्तर : अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नहीं कहना चाहिए क्योंकि जल को लाना, जल को धारण करना, आदि अर्थक्रियाओं के करने में सूक्ष्म परमाणुओं का सामर्थ्य सिद्ध नहीं होता है। उन क्रियाओं को करने में तो घट, पट आदि अवयवियों की ही सामर्थ्य है अतः घट, पट, आदिक अवयवी है, ये वास्तविक अर्थ सिद्ध हो जाते हैं। प्रश्न : अर्थक्रियाओं को करने में प्रवृत्त परमाणु क्या किसी अतिशय की अपेक्षा रखते हैं अथवा नहीं ? दूसरा पक्ष ग्रहण करना तो ठीक नहीं है, क्योंकि बिना किसी चमत्कार के उत्पन्न हुए यदि परमाणु जलधारण आदि कार्यों को कर लेते हैं तब तो सदा ही सम्पूर्ण परमाणुओं को उन कार्यों में प्रवृत्ति करने का प्रसंग आयेगा अर्थात् तृण भी छत के बोझ को सम्भाल लेंगे (यदि प्रथम पक्ष के अनुसार वे परमाणु अपनेअपने कारणों से किये गये अतिशयों की अपेक्षा करते हैं। यानी जिन कारणों से परमाणु उत्पन्न होते हैं उन्हीं कारणों से जलाहरण, शीतापनोद आदि को उत्पन्न कराने वाले अतिशय भी उनमें साथ ही पैदा हो जाते हैं) ऐसा कहने पर तो हम जैन फिर पूछते हैं कि परमाणुओं में उत्पन्न हुआ वह अतिशय क्या पदार्थ है ? यदि कहो कि अनेक परमाणुओं का वही अतिनिकट समानदेशवाला होकर उत्पन्न हो जाना अतिशय है तो फिर उन परमाणुओं का देशपना क्या है ? यदि कहो कि वस्तुतः प्रत्येक परमाणु पृथक्-पृथक् ही देश में रहते हैं, अत: सम्पूर्ण परमाणु भिन्न-भिन्न देशों में उत्पन्न माना गया है, किन्तु जल धारण आदि अर्थक्रियाओं के लिए उपयोगी उन परमाणुओं का व्यवधान रहित सदृश देशों में उत्पन्न हो जाना ही उनकी समानदेशता है। अन्य नहीं। जिस देश में स्थित एक परमाणु उस अर्थक्रिया में उपयुक्त होता है, वैसे ही दूसरे अव्यवहित देश में स्थित दूसरे परमाणु भी उस ही अर्थक्रिया में करते हुए समान देश वाले कहे जाते हैं। केवल एक ही देश में स्थित परमाणु समान देश वाले नहीं कहे जाते हैं क्योंकि इसमें विरोध है। (समान देश और एकदेश मे बहुत अन्तर है। उस ही एक आधार को एक देश कहते हैं और उसके समान दूसरे देशों मे रहने पर समान देश कहे जाते हैं। मूर्त एक परमाणु जब एक प्रदेश को घेर लेता है तो दूसरे परमाणु के ठहरने का विरोध है)। यदि अनेक परमाणु एक जगह स्थित हो जावेंगे तो सम्पूर्ण परमाणुओं को केवल एक परमाणुरूप हो जाने का प्रसंग आयेगा। जब परमाणु अपने सम्पूर्ण स्वरूप से परस्पर एक दूसरे में प्रविष्ट हो जावेंगे तो अनेक परमाणुओं का पिण्ड भी एक परमाणुरूप हो जावेगा, यह स्पष्ट है। अन्यथा परमाणुओं का एक देशपना न बन सकेगा।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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