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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 172 माणवकेऽग्निरध्यारोपितः पाकादावाधीयते / करांगुलिष्वारोपितो वैनतेयो निर्विषीकरणादावाधीयत इति चेत् न, समुद्रोल्लंघनाद्यर्थक्रियायामपि तस्याधानप्रसंगात् / निर्विषीकरणादयस्तु तदा पानादिमात्रनिबंधना एवेति न ततो विरुध्यते / नन्वर्थक्रियाशक्तिरसिद्धावयविनः परमाणूनामेवार्थक्रियासमर्थसिद्धेस्त एव ह्यसाधारणार्थक्रियाकारिणो रूपादितया व्यवह्रियंते / जलाहरणादिलक्षणसाधारणार्थक्रियायां प्रवर्तमानास्तु घटादितया / ततो घटाद्यवयविनो अवस्तुत्वसिद्धिस्तस्य संवृतसत्त्वादितिचेन्न, परमाणूनां जलाहरणाद्यर्थक्रियायां भावार्थ : चाहे निर्विकल्पक ज्ञान हो या सविकल्पक ज्ञान हो, पूरा मिथ्या ज्ञान भी क्यों न हो; ये सब अपने को तो प्रमाण स्वरूप संवेदन से जानते हैं वह संवेदन प्रत्यक्ष जैसे कल्पित ज्ञान नहीं है उसी प्रकार अंशी पदार्थ कल्पित नहीं है अनेक अंशवाला एक अंशी पदार्थ वस्तुभूत है। . ___ अर्थात् जो अर्थक्रियाओं को करता है, वह वस्तुभूत है (अर्थक्रियाकारित्वं वस्तुनो लक्षणम्) / घट, पट, आदिक अवयवी और आत्मा, आकाश, आदि अंशी पदार्थों को सिद्ध करने में यह युक्ति है। अर्थक्रिया करने में समर्थ होने से अंशी कल्पना आरोपित नहीं है जैसे एक तेजस्वी चंचल बालक में अग्निपने का आरोप कर लिया गया इतने से ही वह आरोपी अग्नि बेचारी पचाना, जलाना, आदि क्रियाओं के उपयोग करने में नहीं ली जाती है क्योंकि कल्पित अवयवी कुछ कार्य नहीं कर सकता। शंका : हाथ की अंगुलियों में कल्पित कर लिया गया गरुड़ पक्षी विष उतारने रूप क्रिया आदि मे अर्थक्रियाकारी माना गया है अर्थात् गारुड़िक जन अपनी अंगुलियों में गरुड़ की स्थापना कर उसके द्वारा साँप के काटे हुए मनुष्य का विष उतार देते हैं। इस प्रकार कल्पित पदार्थ भी कुछ कार्य कर देते हैं। समाधान : ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि ऐसा कहने पर तो समुद्र का उल्लंघन करना, पर्वत को लांघ जाना आदि अर्थक्रियाओं में भी उस अंगुली रूप गरुड़ के उपयोग हो जाने का प्रसंग आयेगा। विष रहित करना आदिक कार्य तो उस समय मन्त्रित जल के पान अथवा गरुड़ की आकृति आदि को कारण मानकर ही उत्पन्न होते हैं अतः उस कल्पित गरुड़ से हुए विरुद्ध नहीं माने जाते हैं (किन्तु समुद्र का उल्लंघन करना तो वस्तुभूत मुख्य गरुड़ का कार्य है अत: अवयवी अनेक अर्थक्रियाओं को करता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है, अत: अंशी परमार्थ है, कल्पित नहीं।) बौद्ध की शंका : अवयवी में अर्थक्रिया करने की शक्ति सिद्ध नहीं है परमाणुओं के ही अर्थक्रिया करने की सामर्थ्य सिद्ध है, वे परमाणु ही अपनी-अपनी असाधारण अर्थ क्रियाओं को करते हुए रूप परमाणु, रस परमाणु अथवा रूपस्कन्ध, वेदना स्कन्ध आदि से व्यवहार में प्रचलित होते हैं अर्थात् प्रत्येक वस्तुभूत परमाणु की अर्थक्रिया न्यारी-न्यारी है। जिस समय अनेक परमाणु एक सी जलधारण, शीत को दूर करना, आदि स्वरूप साधारण अर्थक्रियाओं को करने में प्रवृत्ति करते हैं तब वे घट, पट आदि रूप से व्यवहत किये जाते हैं अतः घट, पट आदिक अवयवियों को वस्तुभूतपना सिद्ध नहीं है (जो कुछ भी अर्थक्रिया हो रही है सब परमाणुओं की है)। वह अवयवी तो केवल व्यवहार से सत् मान लिया जाता है, वस्तुत: नहीं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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