________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 171 सत्यप्यनिवर्तमानं स्थवीयान्सं एकमवयविनं कल्पनारोपितं ब्रुवन् कथमवयवेवयविवचन: ? यदि पुनरवयविकल्पनायाः कल्पनांतरस्य वाशुवृत्तेविच्छेदानुपलक्षणात् सहभावाभिमानो लोकस्य / ततो न कल्पनांतरे सति कल्पनात्मनोप्यवयविनोस्तित्वमिति मतिः तदा कथमिंद्रियबुद्धीनां क्वचित्सहभावस्तात्त्विकः सिद्ध्येत् / तासामप्याशुवृत्तेर्विच्छेदानुपलक्षणात्सहभावाभिमानसिद्धेः / कथं वाश्वं विकल्पयतोपि च गोदर्शनाद्दर्शनकल्पनाविरहसिद्धिः ? कल्पनात्मनोपि गोदर्शनस्य तथाश्वविकल्पेन सहभावप्रतीतेरविरोधात् / ततः सर्वत्र कल्पनायाः कल्पनांतरोदये निवृत्तिरेष्टव्या, अन्यथेष्टव्याघातात् / तथा च न कल्पनारोपितोंशी कल्पनांतरे सत्यप्यनिवर्तमानत्वात् स्वसंवेदनवत् / तस्यार्थक्रियायां सामर्थ्याच्च न कल्पनारोपितत्वं / न हि स्वयं स्वीकार करता हुआ भी बौद्ध अन्य कल्पनाओं के होने पर भी निवृत्त नहीं होने वाले अधिक स्थूल एक अवयवी को कल्पना से आरोपित कर रहा है। अतः अवयव में अवयवी को कल्पित करने वाले के द्वारा अवयव और अवयवी का विवेचन कैसे हो सकता है ? अर्थात् जब दूसरे कल्पना ज्ञान के होते हुए भी अवयवी का ज्ञान हो रहा है, निवृत्त नहीं होता है तो सिद्ध हुआ कि वह एक अवयवी का ज्ञान प्रमाणज्ञान है, कल्पित नहीं है। यहाँ अंशों का निर्विकल्पक प्रत्यक्षज्ञान करते समय अवयवी का कल्पना से ज्ञान होता है उस कल्पना ज्ञान के अव्यवहित उत्तर समय में अत्यन्त शीघ्र दूसरे कल्पान्तर का ज्ञान हो जाता है (कुम्हार के चक्रभ्रमण के समान शीघ्रता होने से मध्यवर्ती देश, काल का अन्तराल स्थूल दृष्टि वाले लोक को नहीं दिखता है) अत: एक समय में साथ-साथ उत्पन्न हुए दो कल्पना ज्ञानों की सगर्व मान्यता हो जाती है (यानी जन समुदाय दो कल्पना ज्ञानों का एक समय में होना भ्रमवश कहता है वस्तुत: विचारा जाए तो दो कल्पनाएँ दो समयों में हुई हैं) अत: दूसरी कल्पना के होने पर पूर्व समय की कल्पना स्वरूप से आरोपित अवयवी का वस्तुतः अस्तित्व नहीं है। बौद्धों का ऐसा विचार होने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो इन्द्रिय-जन्य ज्ञानों का कहीं वास्तविक रूप से साथ रहना कैसे सिद्ध होगा? वहाँ भी कहा जा सकता है कि उन ज्ञानों की भी अतिशीघ्रता से अव्यवहित उत्तरोत्तर समयों में प्रवृत्ति होने के कारण मध्य का अन्तराल नहीं दीखता है अत: संसारी जीवों को इन्द्रिय ज्ञानों का एक साथ होना मानना सिद्ध है। (वस्तुतः इन्द्रियजन्य ज्ञान भी एक साथ उत्पन्न नहीं होते हैं। जैनाचार्य उपयोग आत्मक पाँच का तो क्या दो ज्ञानों का भी एक साथ होना अभीष्ट नहीं करते हैं चेतना गुण की एक समय में एक ही पर्याय हो सकती है, न्यून अधिक नहीं) _ किंच अश्व का विकल्प करने वाले पुरुष के गाय का निर्विकल्पक दर्शन हो जाने से दर्शनरूप कल्पना के अभाव की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि कल्पना स्वरूप भी गो दर्शन की उस प्रकार अश्व विकल्प ज्ञान के साथ होने वाली प्रतीति का कोई विरोध नहीं है अत: सभी स्थलों पर दूसरी कल्पना के उदय हो जाने पर पहली कल्पना की निवृत्ति हो जाना इष्ट कर लेना चाहिए। अन्यथा आपके अभीष्ट मन्तव्यों का व्याघात हो जावेगा और ऐसा होने पर तो सिद्ध हो जाता है कि अन्वयी या अंशी कल्पना मात्र नहीं है क्योंकि दूसरी कल्पनाओं के उत्पन्न हो जाने पर भी वह निवृत्त नहीं होती है। जैसे कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कल्पित नहीं है।