________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 170 नांतर्बहिर्वांशेभ्यो भिन्नोंशी कश्चित्तत्त्वतोस्ति यो हि प्रत्यक्षबुद्धावात्मानं न समर्पयति प्रत्यक्षता में स्वीकरोति / सोयममूल्यदानक्र यीत्ययुक्तिकमेव, स्थविष्ठस्यैकस्य स्फुटं साक्षात्करणात् तद्व्यतिरेकेणांशानामेवाप्रतिभासनात् / तथा इमे परमाणवो नात्मनः प्रत्यक्षबुद्धौ स्वरूपं समर्पयंति प्रत्यक्षता च स्वीकर्तुमुत्सहंत इत्यमूल्यदानक्रयिणः / / कल्पनारोपितोंशी चेत् स न स्यात् कल्पनांतरे / तस्य नार्थक्रियाशक्तिर्न स्पष्टज्ञानवेद्यता // 8 // शक्यंते हि कल्पनाः प्रतिसंख्यानेन निवारयितुं नेंद्रियबुद्धय इति स्वयमभ्युपेत्य कल्पनांतरे स्थूल अंशी (अवयवी) का स्पष्ट रूप में प्रत्यक्षज्ञान द्वारा दर्शन हो रहा है। जैसे कि प्रत्यक्ष ज्ञान से उसके अंश दिख रहे हैं // 7 // भावार्थ : कपाल, तन्तु, आदि छोटे-छोटे अनेक अवयवों से कथञ्चित् भिन्न एक स्थूल घट, पट, आदि अवयवी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। सौगतों का मन्तव्य ज्ञान परमाणु रूप अन्तरंग और स्वलक्षण परमाणु रूप बहिरंग अंशों से भिन्न कोई अंशवान् स्थूल अवयवी पदार्थ वास्तविक रूप से नहीं है, क्योंकि अंशी प्रत्यक्ष प्रमाण में अपने स्वरूप को अर्पित नहीं करता है और अपने प्रत्यक्ष हो जाने को स्वीकार करना चाहता है अत: जैन, नैयायिक, मीमांसक आदि के द्वारा मान लिया गया वह यह अंशी मूल्य न देकर क्रय (खरीद) करने वाला है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार सौगत का कहना अयुक्त ही है, क्योंकि अधिक मोटा एक अर्थ (पदार्थ) स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रत्युत् उस अवयवी से सर्वथा भिन्न माने गये अंश ही दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं अत: बौद्धों के द्वारा स्वीकृत परमाणु ही प्रत्यक्ष ज्ञान में अपने स्वरूप को अर्पण नहीं करता है, किन्तु अपने प्रत्यक्ष हो जाने पन को स्वीकार करने के लिए उत्साहित हो रहा है। इस प्रकार तुम्हारे अंतरंग, बहिरंग परमाणु ही बिना मूल्य देकर सौदा लेने वाले हैं, हमारा अवयवी नहीं। भावार्थ : घट, पुस्तक, आत्मा, हाथी, घोड़ा आदि अवयवियों का स्पष्ट प्रतिभास होता है, अवयव का नहीं। बौद्ध कहता है कि अंशी वास्तविक पदार्थ नहीं है, कल्पित है। जैन आचार्य प्रतिवाद करते हैं कि यदि अवयवी पदार्थ कल्पित होता तो दूसरी कल्पनाओं के उत्पन्न हो जाने पर वह नहीं रहने पाता, किन्तु हृदय में अनेक कल्पनाओं के उठते रहने पर भी अवयवी ओझल नहीं होते हैं। कल्पना किये हुए पदार्थों में तो ऐसा नहीं होता है। अत: अवयवी कल्पित नहीं है, किन्न् वस्तुभूत है। अथवा कल्पित किया गया वह अवयवी अर्थ क्रियाओं को नहीं कर सकता है ऐसा भी नर्ह है, क्योंकि प्रकरण में घट, पट आदि अवयवी पदार्थों से जलधारण आदि अर्थक्रियायें हो रही हैं तथा स्थि स्थूल साधारण, अवयवी पदार्थ का प्रत्यक्ष प्रमाण ज्ञान द्वारा स्पष्ट संवेदन हो रहा है, अर्थात् प्रकरण अवयवी तो स्पष्ट ज्ञान द्वारा जाना जा रहा है / / 8 // कल्पनाएँ तो उनके प्रतिकूल अन्य कल्पनाओं से निवारण की जा सकती हैं, किन्तु इन्द्रियजन्य ज्ञान तो अन्य प्रतिकूल ज्ञानों से हटाये नहीं जा सकते हैं, क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस प्रका