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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 169 तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता / समुंद्रबहुत्वं वा स्यात्तच्चेत्कास्तु समुद्रवित् // 6 // यथैव हि समुद्रांशस्य समुद्रत्वे शेषसमुद्रांशानामसमुद्रत्वप्रसंगात् समुद्रबहुत्वापत्तिर्वा तेषामपि प्रत्येक समुद्रत्वात् / तस्यासमुद्रत्वे वा शेषसमुद्रांशानामप्यसमुद्रत्वात् क्वचिदपि समुद्रव्यवहारायोगात् समुद्रांशः स एवोच्यते / तथा स्वार्थैकदेशो नयस्य न वस्तु स्वार्थैकदेशान्तराणामवस्तुत्वप्रसंगात्, वस्तुबहुत्वानुषक्तेर्वा / नाप्यवस्तु शेषांशानामप्यवस्तुत्वेन क्वचिदपि वस्तुव्यवस्थानुपपत्तेः / किं तर्हि ? / वस्त्वंश एवासौ तादृक्प्रतीतेर्बाधकाभावात्॥ नांशेभ्योतिरं कश्चित्तत्त्वतोंशीत्ययुक्तिकम् / तस्यैकश्च स्थविष्ठस्य स्फुटं दृष्टेस्तदंशवत् // 7 // नय द्वारा विषय किया गया वस्तु का अंश न तो पूरी वस्तु है और न वस्तु से सर्वथा पृथक् अवस्तु है किन्तु वस्तु का एकदेश कहा जाता है जैसे कि समुद्र का एक अंश पूर्ण समुद्र नहीं है, और घट या नदी, सरोवर के समान वह असमुद्र भी नहीं है किन्तु वह समुद्र का एक अंश कहा जाता है। यदि समुद्र के केवल उतने अंश को पूरा समुद्र मान लिया जावेगा तो शेष बचे हुए समुद्र अंशों को भी सरोवर आदि के समान समुद्ररहितपने का प्रसंग आयेगा। समुद्र के एक-एक अंश को यदि पूरा समुद्र कह दोगे तो एक-एक टुकड़े के बहुत से समुद्र हो जावेंगे, ऐसी दशा में एक अवयवी समुद्र का ज्ञान कैसे होगा॥ 5-6 // समुद्र के अंश को पूर्ण समुद्र मान लेने पर बचे हुए समुद्र के अंशों को असमुद्रपने का प्रसंग आता है अथवा एक-एक अंश को समुद्रपना हो जाने से बहुत से समुद्र हो जाने की आपत्ति होती है, क्योंकि वे सम्पूर्ण एक-एक अंश भी पृथक्-पृथक् समुद्र बन जावेंगे। यदि उस समुद्र के अंश को समुद्रपना न माना जावेगा तो समुद्र के बचे हुए अंशों को भी समुद्रपना न होगा। तब तो कहीं भी समुद्रपने का व्यवहार न हो सकेगा। अतः परिशेष न्याय से यही निर्णय करना पड़ेगा कि वह समद्र का अंश न तो समद्र है और न असमुद्र है, किन्तु वह समुद्र का एकदेश अंश ही कहा जाता है। उसी प्रकार नय के गोचर स्व और अर्थ का एकदेश भी पूरी वस्तु नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर स्वार्थ से बचे हुए अन्य कतिपय एकदेशों को अवस्तुपने का प्रसंग आता है। अथवा वस्तु के एक-एक अंश को यदि पूरी एक-एक वस्तु मान लिया जावेगा तो एक वस्तु में बहुत सी वस्तुएँ हो जाने की आपत्ति होती है। _तथा नय से जान लिया गया कि स्वार्थ का अंश अवस्तु भी नहीं है, क्योंकि उस प्रकृत अंश के समान बचे हुए अन्य अंशों को भी अवस्तुपना हो जाने से कहीं भी वस्तु की व्यवस्था सिद्ध न हो सकेगी। शंका : नय के द्वारा जाना गया स्वार्थांश क्या है ? समाधान : वह वस्तु का अंश ही है, ऐसी प्रतीति होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है। .. भावार्थ : अकेले हाथ को शरीर भी नहीं कह सकते हैं और अशरीर भी नहीं कह सकते, अपितु हाथ, शरीर का एकदेश है, उसी प्रकार नय के द्वारा जानी हुई वस्तु अवस्तु नहीं है अपितु वस्तु का अंश है। बौद्ध दर्शन अंशों से भिन्न कोई भी पदार्थ वास्तविक रूप से नहीं मानता है अत: उसके मत में अंशी नहीं है केवल अंशरूप अवयव ही पदार्थ है। क्षणिक परमाणु ही वास्तविक है, अवयवी कोई वस्तु नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों का यह कहना युक्तियों स रहित है क्योंकि उस एक अवयवी रूप अधिक
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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