________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 168 प्रकृष्टां विशुद्धिमंतरेण प्रमाणमनेकधर्मधर्मिस्वभावं सकलमर्थमादिशति, नयस्यापि सकलादेशित्वप्रसंगात् / नाापि विशुद्ध्यपकर्षमंतरेण नयो धर्ममात्रं वा विकलमादिशति प्रमाणस्याविकलादेशित्वप्रसंगात्॥ स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत् / स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः // 4 // नयः प्रमाणमेव स्वार्थव्यवसायकत्वादिष्टप्रमाणवद् विपर्ययो वा, ततो न प्रमाणनययोर्भेदोस्ति येनाभ्यर्हितेतरता चिंत्या इति कश्चित् / तदसत् / नयस्य स्वार्थेकदेशलक्षणत्वेन स्वार्थनिश्चायकत्वासिद्धेः। स्वार्थांशस्यापि वस्तुत्वे तत्परिच्छेदे छेदलक्षणत्वात्प्रमाणस्य स न चेद्वस्तु तद्विषयो मिथ्याज्ञानमेव स्यात्तस्यावस्तुविषयत्वलक्षणत्वादिति चोद्यमसदेव / कुतः ? नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः। नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते // 5 // और धर्मारूप स्वभावों से तादात्म्य रखने वाले सम्पूर्ण अर्थ का निरूपण नहीं कर सकता है। अन्यथा थोड़ विशुद्धि से युक्त नय को भी पूरी वस्तु के समझाने का प्रसंग आयेगा तथा विशुद्धि की अल्पता के बिना नय ज्ञान एक अंश रूप विकल अकेले धर्म या केवल धर्मी का कथन नहीं कर सकता अन्यथा प्रमाण को भी विकलादेशीपने का प्रसंग होगा। अपना और अर्थ का निश्चय कराने वाला होने के कारण नयज्ञान भी प्रमाण हैं। इस प्रकार कहना समीचीन नहीं है। क्योंकि नय का लक्षण अपना और अर्थ का एकदेशरूप से निर्णय करना कहा है॥४॥ कोई कहता है कि नय ज्ञान प्रमाणरूप ही है क्योंकि वह नय स्वयं अपना और अर्थ का निर्णय कराने वाला है। जैसे इष्ट प्रमाण, प्रमाण ही है। यदि अपने और अर्थ को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण न मानकर नय मान लिया जावेगा तो इष्ट प्रमाण को भी नय मानना पड़ेगा। इस प्रकार मानने पर सिद्धान्त से विपरीत नियम हो जाने का प्रसंग आयेगा अतः प्रमाण और नय में कोई भेद नहीं है जिससे कि प्रमाण के पूज्यपने का और नयों के अपूज्यपने का विचार किया जाये अर्थात् प्रमाण के समान नय भी पूज्य है और अल्पस्वर वाला तो है ही, अत: सूत्र में नय शब्द का पहले प्रयोग करना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि आपका यह कथन प्रशस्त नहीं है, क्योंकि अपना और अर्थ का एकदेश से निर्णय करना नय का लक्षण है अत: पूर्ण रूप से अपना और अर्थ का निश्चय कराने वाला हेतु असिद्ध है, अर्थात् पक्ष में हेतु के नहीं रहने से उक्त हेतु असिद्ध हेत्वाभास है। नय के द्वारा जाने गये स्वांश और अर्थांश को भी यदि वस्तुभूत माना जावेगा, तब तो उनको जान लेने पर वस्तु का ग्रहण कर लेने वाला हो जाने से नय ज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा। प्रमाण का लक्षण वस्तु को जानना है यदि नय से जाने गये स्व और अर्थ के अंश को वस्तु न माना जावेगा तब तो उस अवस्तु को विषय करने वाला नय ज्ञान मिथ्या ज्ञान होगा, क्योंकि अवस्तु को विषय करना उस मिथ्या ज्ञान का लक्षण है। इस प्रकार कहना वा शंका करना उचित नहीं है क्योंकि -