________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 167 प्रमाणं च नयाश्चेति द्वन्द्वे पूर्वनिपातनम् / कृतं प्रमाणशब्दस्याभ्यर्हितत्वेन बह्वचः // 2 // न ह्यल्पान्तरादभ्यर्हितं पूर्वं निपततीति कस्यचिदप्रसिद्ध लक्षणहेत्वोरित्यत्र हेतुशब्दादल्पान्तरादपि लक्षणपदस्य बह्वचोऽभ्यर्हितस्य पूर्वप्रयोगदर्शनात् // कथं पुन: प्रमाणमभ्यर्हितं नयादित्याह;प्रमाणं सकलादेशि नयादभ्यर्हितं मतम् / विकलादेशिनस्तस्य वाचकोपि तथोच्यते // 3 // कथमभ्यर्हितत्वानभ्यर्हितत्वाभ्यां सकलादेशित्वविकलादेशित्वे व्याप्तिसिद्धे यतः प्रमाणनययोस्ते सिद्ध्यत इति चेत् , प्रकृष्टाप्रकृष्टविशुद्धिलक्षणत्वादभ्यर्हितत्वानभ्यर्हितत्वयोस्तद्व्यापकत्वमिति ब्रूमः / न हि प्रमाण और नय पद में से नय पद के अल्प स्वर. हैं, यानी दो अच् हैं तथा प्रमाण पद के बहुत स्वर हैं, यानी तीन स्वर हैं, अत: अपेक्षाकृत बहुत स्वर होने से प्रमाण का पूर्व में वचनप्रयोग नहीं होना चाहिए। और “नयप्रमाणैरधिगमः” ऐसा सूत्र कहना चाहिए। इस प्रकार कहने पर आचार्य उत्तर देते हैं : . प्रमाण और नय इस प्रकार द्वन्द्व समास करने पर, बहुत स्वर वाले भी प्रमाण शब्द का पूज्यपने के कारण पहले निक्षेपण कर दिया है अर्थात् अल्प स्वर वाला पहले प्रयुक्त किया जाता है। इस सामान्य नियम का "अभ्यर्हितं पूर्वम्" अतिपूज्य का पूर्व में निपात होना रूप अपवाद नियम बाधक है अत: अंशी होने के कारण पूज्य प्रमाण शब्द का पहले प्रयोग किया है अर्थात् प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित पुरुषों प्रकरण होने पर प्रतिष्ठित पुरुषों का नाम पहले लिया जाता है // 2 // प्रकृष्ट रूप से अल्प स्वर वाले पद की अपेक्षा अधिक पूज्य का वाचक पद पूर्व में प्रयुक्त हो जाता है। यह नियम किसी के यहाँ भी अप्रसिद्ध नहीं है; सभी शब्द शास्त्रों में प्रसिद्ध है। यहाँ “लक्षणहेत्वो" इस सूत्र में लक्षण और हेतु या हेतु और लक्षण ऐसा इतरेतर द्वन्द्व करने पर स्वन्त एवं अल्प स्वर वाले भी हेतु शब्द से बहुत स्वर वाले किन्तु अधिक पूज्य लक्षण पद का पहले प्रयोग होना देखा जाता है। नय से प्रमाण अधिक पूज्य कैसे है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य उत्तर देते हैं - - वस्तु के एकदेशीय विकल अंशों को कहने वाले नय ज्ञान से वस्तु के सम्पूर्ण अंशों को कहने वाला प्रमाणज्ञान अधिक पूज्य माना गया है। अत: उस सम्यग्ज्ञान रूप अभिधेय को कहने वाला प्रमाण वाचक शब्द भी पूज्य कहा जाता है॥ 3 // ___ पूज्यपने और अपूज्यपने के साथ सकलादेशीपने और विकलादेशीपने की व्याप्ति कैसे सिद्ध कर ली जाती है ? अर्थात् जो ज्ञान वस्तु के सम्पूर्ण अंशों का निरूपण करने वाला है वह अभ्यर्हित है और जो ज्ञान वस्तु के कुछ अंश का प्ररूपण करता है वह अपूज्य है। इस प्रकार की व्याप्ति किस प्रकार सिद्ध की गई है, जिससे कि वे अपने-अपने हेतुओं से व्यापक पूज्यपने और अपूज्यपने साध्य को प्रमाण और नयरूपी पक्ष में सिद्ध कर देते हों। ऐसी शंका होने पर आचार्य कहते हैं कि पूज्यपने का प्रयोजन अतिशययुक्त श्रेष्ठ विशुद्धि होना है और न्यून विशुद्धि होना अपूज्यपने का लक्षण है अतः सकलादेशीपन का व्यापक पूज्यपना है और विकलादेशीपन का व्यापक अपूज्यपना है। अधिक श्रेष्ठ विशुद्धि के बिना प्रमाण ज्ञान अनेक धर्म