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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 166 ज्ञापकत्वादतिप्रसंगाच्चेत्यपरः। सोप्यप्रस्तुतवादी। प्रमाणनयानामभ्यासानभ्यासावस्थयोः स्वत: परतश्चाधिगमस्य वक्ष्यमाणत्वात् / परतस्तेषामधिगमे क्वचिदभ्यासात्स्वतोधिगमसिद्धरनवस्थापरिहरणात् / स्वतोधिगमे सर्वार्थानामधिगमस्य तेषामचेतनत्वेनातिप्रसंगात् / चेतनार्थानां कथंचित्प्रमाणनयात्मकत्वेन स्वतोधिगमस्येष्टत्वाच्च श्रेयान् प्रमाणनयैरधिगमोर्थानां सर्वथा दोषाभावात्॥ ननु च प्रमाणं नयाश्चेति द्वंद्ववृत्तौ नयस्य पूर्वनिपातः स्यादल्पाच्तरत्वान्न प्रमाणस्य बह्वन्तरत्वादित्याक्षेपे प्राह;प्रमाण और नय तो पदार्थों के जानने के उपाय नहीं हैं, क्योंकि वे ज्ञापक हैं। दूसरे से या अपने से जो ज्ञात नहीं है, वह पदार्थ ज्ञापक नहीं होता है अन्यथा अति प्रसंग दोष आता है। अज्ञात घट, पट, आदिक पदार्थ भी चाहे जिस किसी भी वस्तु के ज्ञापक बन जायेंगे ? इस प्रकार कोई मतावलम्बी पूछ रहा है। उसको आचार्य उत्तर कहते हैं कि : वह शङ्काकार भी प्रकरण के विषय को नहीं समझ कर ऐसा कह रहा है, क्योंकि अभ्यास दशा में प्रमाण और नयों का अपने आप अधिगम हो जाता है और अनभ्यास दशा में प्रमाण तथा नयों की दूसरे ज्ञापकों से ज्ञप्ति होती है। इस विषय को आगे स्पष्ट करने वाले हैं। प्रमाण की उत्पत्ति तो परतः ही होती है किन्तु प्रमाणपने की ज्ञप्ति अभ्यासदशा में स्वत: यानी ज्ञान के सामान्य कारणों से ही होती है और अनभ्यास दशा में दूसरों यानी ज्ञान के सामान्य से एवं अतिरिक्त निर्मलता आदि कारणों से होती है अर्थात् जैसे अपने परिचित घर में अन्धकार होने पर भी अभ्यास के वश अर्थों को जानने वाले ज्ञान के प्रमाणपने की स्वत: ज्ञप्ति कर लेते हैं किन्तु अपरिचित गृह में अन्य कारणों से प्रामाण्य की ज्ञप्ति होती है। जिन ज्ञापक दूसरे कारणों से अधिगम होना माना है, उनके प्रामाण्य को जानने में कहीं तो प्रथम अभ्यास होने से अपने आप अधिगम होना सिद्ध है। अत: अनवस्था दोष का निवारण हो जाता है। ___ “प्रमाण नयों का अपने आप अधिगम होना मानोगे तो सम्पूर्ण अर्थों का भी अपने आप अधिगम हो जावेगा"आचार्यों का कहना है कि सभी जड या चेतन अर्थों की अपने आप ज्ञप्ति होना माना जाएगा तो ज्ञप्ति का अति प्रसंग दोष हो जावेगा, क्योंकि वे घट, पट, आदिक अर्थ अचेतन होने के कारण स्वयं अपना ज्ञान नहीं कर सकते हैं। अचेतन पदार्थ यदि ज्ञान करने लगे तो वे चेतन हो जावेंगे तथा ज्ञान के समान कंकड़ भी अपने को जानकर इष्टानिष्ट पदार्थों का ग्रहण या त्याग करने लग जावेंगे। अतः सम्पूर्ण अर्थों में से ज्ञान, आत्मा, इच्छा, सुख, दु:ख आदि चेतन या चेतन के अंश रूप पदार्थों को किसी अपेक्षा से प्रमाण नय स्वरूप होने के कारण अपने आप अधिगम होना इष्ट किया है अत: सभी प्रकार दोष न होने से प्रमाण और नयों के द्वारा पदार्थों का अधिगम होना श्रेष्ठ है। __ दूसरी शंका इस सूत्र में प्रमाण और नय अथवा नय और प्रमाण इस प्रकार चाहे जैसे भी द्वन्द्व नाम की समास वृत्ति करने पर नय शब्द का पहले निपात (पहले प्रयोग) करना चाहिए, क्योंकि “अल्पान्तरं पूर्वम्” व्याकरण के इस सूत्रानुसार अनेक पदों में से थोड़े स्वर वाले एक पद का पूर्व निपात होता है, परन्तु
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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