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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 165 प्रमाणनयैरधिगमः // 6 // सर्वार्थानां मुमुक्षुभिः कर्तव्यो न पुनरसाधन एवाधिगम इति वाक्यार्थः / कथमसौ तैः कर्तव्य इत्याह;सूत्रे नामादिनिक्षिप्ततत्त्वार्थाधिगमस्थितः / कात्य॑तो देशतो वापि स प्रमाणनयैरिह // 1 // तन्निसर्गादधिगमाद्वेत्यत्र सूत्रे नामादिनिक्षिप्तानां तत्त्वार्थानां योधिगमः सम्यग्दर्शनहेतुत्वेन स्थितः स इह शास्त्रे प्रस्तावे वा कात्स्य॑तः प्रमाणेन कर्तव्यो देशतो नयैरेवेति व्यवस्था / नन्वेवं प्रमाणनयानामधिगमस्तथान्यैः प्रमाणनयैः कार्यस्तदधिगमोप्यपरित्यनवस्था, स्वतस्तेषामधिगमे सर्वार्थानां स्वतः सोस्त्विति न तेषामधिगमसाधनत्वं / न वानधिगता एव प्रमाणनयाः पदार्थाधिगमोपाया प्रमाण और नयों के द्वारा जोवादि पदार्थों का अधिगम (ज्ञान) होता है अर्थात् पदार्थों का निर्णय वा जानने का साधन प्रमाण और नय हैं, क्योंकि पदार्थों का निर्णय प्रमाण और नयों के द्वारा ही होता है / / 6 / / भावार्थ : वस्तु के सकलादेश को जानने वाले स्व-पर-प्रकाशक प्रमाणों से और वस्त्वंश को विकलादेश जानने वाले श्रुत ज्ञानांशरूप नयों से सम्यग्दर्शन आदि तथा जीव आदि सम्पूर्ण पदार्थों का निर्णय होता है। ____ इस सूत्र वाक्य का अन्य उपयोगी पदों के उपस्कार कर लेने पर यह अर्थ हुआ कि मोक्ष को चाहने वाले पुरुषों को सम्पूर्ण अर्थों का प्रमाण और नयों से निर्णय कर लेना चाहिए क्योंकि पुनः ज्ञापक कारण के बिना वाक्य अर्थ का अधिगम नहीं किया जा सकता है। कोई भव्य कहता है कि वह अधिगम उन प्रमाण नयों द्वारा कैसे करना चाहिए ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य उत्तर कहते हैं। __पूर्व सूत्र में नाम आदिक के द्वारा निक्षिप्त किये तत्त्वार्थों का सम्पूर्ण रूप से अधिगम होना प्रमाणों से और एक देश से अधिगम होना नयों से व्यवस्थित है। वही इस सूत्र में निर्णीत कर दिया गया है॥ 1 // - इस वार्त्तिक का विवरण इस प्रकार है, “तन्निसर्गादधिगमाद्वा” इस सूत्र में नाम आदिक के द्वारा निक्षिप्त किये गये तात्त्विक पदार्थों का अधिगम होना अधिगमजन्य सम्यग्दर्शन के हेतु रूप से व्यवस्थित किया गया है। यह अधिगम इस शास्त्र में या इस प्रकरण में पूर्ण रूप से प्रमाण और प्रमाण के एक अंश रूप नयों से ही होता है, ऐसा जानना चाहिए, यह इस सूत्र का अभिप्राय है। __ शंका : जैसे जीव आदिकों का अधिगम प्रमाण और नयों से किया जाता है उसी प्रकार उन प्रमाण नयों का अधिगम भी अन्य प्रमाण और नयों के द्वारा किया जाना चाहिए तथा उनका भी अधिगम तीसरे प्रमाण नयों से होना चाहिए। अत: चौथे, पाँचवें आदि की जिज्ञासा होते हुए, आकांक्षा के बढ़ जाने पर अनवस्था दोष आता है। यदि अनवस्था को दूर करने के लिए उन प्रमाण नयों का अपने आप ही अधिगम हो जाना स्वीकार करते हैं, तब तो सम्पूर्ण जीव आदि पदार्थों के भी अपने आप से वह अधिगम हो जायेगा। इसलिए उन प्रमाण नयों के अधिगम का साधकपना सिद्ध नहीं होता है। दूसरों से या स्वयं नहीं जाने गये
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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