________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *177 साध्यते ततस्तस्य स्पष्टप्रतिभास इति मतं / नैतदपि साधीयः / शब्दस्वलक्षणदर्शनेन तत्क्षणक्षयानुमानविकल्पस्याभिभवप्रसंगात् / नहि तस्य तेन युगपद्भावो नास्ति विरोधाभावात् ततोस्य स्पष्टप्रतिभास: स्यात् / भिन्नसामग्रीजन्यत्वादनुमानविकल्पस्य न दर्शनेनाभिभव इति चेत् , स्यादेवं / यद्यभिन्नसामग्रीजन्ययोर्विकल्पदर्शनयोरभिभाव्याभिभावकभावः सिद्ध्येत् नियमात् / न चासौ सिद्धः सकलविकल्पस्य स्वसंवेदनेन स्पष्टावभासिना प्रत्यक्षेणाभिन्नसामग्रीजन्येनाप्यभिभवाभावात् / स्वविकल्पवासनाजन्यत्वाद्विकल्पस्य पूर्वसंवेदनमात्रजन्यत्वाच्च स्वसंवेदनस्य / तयोभिन्नसामग्रीजन्यत्वमेवेति चेत् / कथमेवमंशदर्शनेनांशिविकल्पस्याभिभवो नाम तथा दृष्टत्वादिति चेन्न, अंशदर्शनेनांशिविकल्पोऽभिभूत निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा तिरोभाव हो जाता है और तिरोभूत हो जाने पर उस विकल्प ज्ञान का विशद रूप से प्रतिभास होता है।" क्या आप ऐसा सिद्ध करना चाहते हैं ? परन्तु आपका यह कथन श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि शब्द स्वरूप स्वलक्षण के निर्विकल्प ज्ञान से शब्द के क्षणिकत्व को जानने वाला अनुमान रूप विकल्प ज्ञान के तिरोभूत हो जाने का प्रसंग आयेगा क्योंकि क्षणिकत्व को जानने वाला विकल्प निर्विकल्प के साथ नहीं रहता है। ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि निर्विकल्प और विकल्प के युगपत् रहने में कोई विरोध नहीं है। अतः अनुमान रूप विकल्प का भी प्रतिभास होना चाहिए। ... यदि कहो कि भिन्न सामग्रीजन्य होने से अनुमान के विकल्प का निर्विकल्प दर्शन के द्वारा तिरोभाव नहीं होता है, अर्थात् अनुमानरूप विकल्प की हेतुदर्शन, व्याप्तिस्मरण, आदि सामग्री है और निर्विकल्पक की अर्थजन्यता इन्द्रियवृत्ति, आलोक आदि सामग्री है अतः भिन्न-भिन्न सामग्री से जन्य होने के कारण क्षणिकत्व जानने वाले अनुमान रूप विकल्प के शब्दस्वरूप स्वलक्षण को जानने वाले निर्विकल्पक दर्शन से तिरोभाव नहीं होता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों का कहना तो तब हो सकता था कि यदि अभिन्न सामग्री से उत्पन्न हुए विकल्प ज्ञान और निर्विकल्पक का अभिभूत हो जाना तथा अभिभूत करा देनापन नियम से सिद्ध हो जाता, किन्तु वह छिप जाना, छिपादेनापन तो सिद्ध नहीं होता है अर्थात् सम्पूर्ण विकल्पज्ञानों को स्पष्ट रूप से जानने वाले और अभिन्न सामग्री से उत्पन्न हुए भी ऐसे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा सविकल्पपना अभिभव नहीं हो रहा है अर्थात् बौद्धों के यहाँ भी चाहे निर्विकल्पक ज्ञान हो या सविकल्पक, सभी सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञानों का स्वसंवेदनप्रत्यक्ष हो जाना माना गया है। जानने की इच्छा होने पर प्रत्येक विकल्पज्ञान को जानने वाला स्वसंवेदनप्रत्यक्ष अवश्य होगा। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष में स्पष्टपना है विकल्प में अस्पष्टपना है। ऐसी दशा में सभी विकल्पज्ञान स्वसंवेदन के वैशद्यप्रभाव से दब जावेंगे अपनी विकल्पवासनाओं से उत्पन्न होने से सविकल्प के और पहले समय के केवल शुद्ध संवेदन से ही उत्पन्न स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की भिन्न-भिन्न सामग्री से उत्पन्न है ऐसा मानने पर जैन कहते हैं कि इस प्रकार तो अंश के दर्शन से अंशी के विकल्पज्ञान का अभिभव भला कैसे हो सकेगा? क्योंकि वे दोनों पृथक्-पृथक् सामग्री