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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 163 जीवशब्दादिभ्यो भावजीवादिष्वेव संप्रत्ययस्तेषामर्थक्रिया-कारित्वादितिचेत् न, नामादीनामपि स्वार्थक्रियाकारित्वसिद्धेः। भावार्थक्रियायास्तैरकरणादनर्थक्रियाकारित्वं तेषामिति चेत् , नामाद्यर्थक्रियायास्तर्हि भावेनाकरणात्तस्यानर्थक्रियाकारित्वमस्तु / कांचिदप्यर्थक्रियां न नामादयः कुर्वंतीत्ययुक्तं तेषामवस्तुत्वप्रसंगात्। शंका : जीव वाचक जीव शब्द, अश्व शब्द आदि, अजीव वाचक जल दूध आदि शब्द अथवा चित्राम प्रतिबिम्ब आदि के द्वारा वास्तविक भाव जीवादि पदार्थों में ज्ञान होता है क्योंकि भावरूप पदार्थ के ही अर्थक्रियाकारित्व है अर्थात् वास्तविक जलादि का पान करने से पिपासा दूर होती है। चित्राम स्थित नदी के जल से वा नाम जल से तथा भविष्य काल में जल रूप परिणत होने वाले परमाणु से पिपासा दूर नहीं हो सकती है अतः भाव निक्षेप ही मानना उपयुक्त है, अन्य तीन निक्षेपों को मानना व्यर्थ है। उत्तरः ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप में भी अपनी अर्थक्रिया करने की सिद्धि है। भावार्थ : जैसे भाव निक्षेप में अर्थक्रिया होती है वैसे नाम आदि तीन निक्षेप से भी अर्थक्रिया होती है। क्योंकि आत्मा, जल आदि नामों से ज्ञात पदार्थ अपने अनुरूप क्रिया करते हैं। व्याकरण शास्त्र में तो शब्द ही प्रधान है, अग्नि शब्द की सुसंज्ञा है, अग्नि के ज्ञान की या अत्युष्ण अग्नि पदार्थ की सुसंज्ञा नहीं है। मंत्रों में शब्द प्रधान है अर्थ नहीं है। प्रभु की वाणी सुनने में शब्द कृत आनन्द है। मरजाय शब्द सुनकर मन खेदखिन्न हो जाता है, अत: शब्द अर्थक्रिया करने वाले हैं। राजकीय मुद्रा से अनेक कार्य होते हैं, जिनबिम्ब के दर्शन से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, अत: स्थापना निक्षेप में भी अर्थक्रियाकारित्व है। अनिवृत्तिकरण परिणाम भविष्य में सम्यग्दर्शन उत्पन्न करते हैं अतः द्रव्यनिक्षेप में भी अर्थक्रियाकारित्व है अत: नाम, स्थापना और द्रव्यनिक्षेप भी कार्यकारी हैं। वस्तु के पर्याय स्वरूप भाव से होने वाली अर्थक्रिया का करना उन नामादिक निक्षेप के द्वारा नहीं होता है अत: नामादिक अर्थक्रिया को करने वाले नहीं होने से निष्प्रयोजन हैं ; ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि नामादिक निक्षेपों से होने वाली अर्थक्रिया वास्तविक भाव निक्षेप से नहीं होती है अतः भाव निक्षेप का ग्रहण निष्प्रयोजन होगा अर्थात् जो कार्य नाम स्थापना आदि से होता है वह भाव से नहीं होता और जो भाव से होता है वह नामादि से नहीं होता है। . नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप किसी भी अर्थक्रिया को नहीं करते हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि ऐसा कहने पर नामादि निक्षेप में अवस्तुपने का प्रसंग आता है। नामादि अवस्तु नहीं है क्योंकि भाव निक्षेप के समान नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप की निर्बाध प्रतीति से वस्तुत्व की सिद्धि है। भावार्थ : नाम निक्षेप संज्ञा-संज्ञेय व्यवहार को करता है। नाम निक्षेप के अभाव में शास्त्रपरिपाटी वाच्यवाचकपन आदि व्यवहार का अभाव हो जाता है तथा नाम निक्षेप के बिना स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप भी नहीं हो सकते हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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