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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *153 एकस्य भावतोऽक्षीणकारणस्य यदुद्भवे। क्षयो विरोधकस्तस्य सोर्थो यद्यभिधीयते // 86 // तदा नामादयो न स्युः परस्परविरोधकाः / सकृत्संभविनोर्थेषु जीवादिषु विनिश्चिताः // 87 // न विरोधो नाम कश्चिदर्थो येन विरोधिभ्यो भिन्नः स्यात् केवलमक्षीणकारणस्य संतानेन प्रवर्तमानस्य शीतादेः क्षयो यस्योद्भवे पावकादेः स एव तस्य विरोधकः। क्षयः पुनः प्रध्वंसाभावलक्षणः कार्यांतरोत्पाद एवेत्यभिन्नो विरोधिभ्यां भिन्न इव कुतश्चिद्व्यवह्रियत इति यदुच्यते तदापि नामादय: क्वचिदेकत्र परस्परविरोधिनो न स्युः सकृत्संभवित्वेन विनिश्चितत्वात् / न हि द्रव्यस्य प्रबंधेन वर्तमानस्य नामस्थापनाभावानामन्यतमस्यापि तत्रोद्भवे क्षयोनुभूयते नाम्नो वा स्थापनाया भावस्य वा तथा वर्तमानस्य तदितरप्रवृत्तौ येन विरोधो गम्येत / ___ अक्षीण परिपूर्ण कारण वाले एक पदार्थ के अस्तित्व का जिसके उदय होने पर क्षय हो जाता है वह अर्थ उसका विरोधक कहा जाता है। यदि यह विरोध का सिद्धान्तीय लक्षण है तब तो जीवादि पदार्थों का एक साथ रहने से निश्चित नामादिक परस्पर विरोधक नहीं हो सकते अर्थात् जैसे अन्धकार और प्रकाश दोनों एक साथ नहीं रहते हैं अत: इनमें सहानवस्थान नामक विरोध है परन्तु नाम, स्थापना आदि तो एक साथ पाये जाते हैं अतः इनमें सहानवस्था नामक विरोध नहीं है।८६-८७॥ वैशेषिक मतानुसार विरोध नामक कोई स्वतंत्र पदार्थ ही नहीं है जिससे वह विरोधियों से भिन्न हो सके। अपितु केवल सन्तान रूप से प्रवर्तमान अक्षीणकारण वाले शीतादि का अग्नि आदि के उत्पन्न (प्रकट) हो जाने पर क्षय हो जाना ही अग्नि आदि को शीतादिक का विरोधक माना गया है। अग्नि के सद्भाव में शीत का क्षय होना ही विरोध है। यह क्षय कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है किन्तु वह क्षय पुनः प्रध्वंसाभाव लक्षण एक पर्याय रूप कार्यान्तर का उत्पाद ही है अर्थात् दूसरे कार्य का उत्पाद हो जाना ही पूर्व पर्याय का ध्वंस है। आत्मा में स्थित कर्मों का नाश हो जाना ही मोक्ष है। उपादान कारण का क्षय ही कार्य का उत्पाद होना है। इसलिए विरोधियों से अभिन्न भी विरोध किसी कारणवश भिन्न रूप से व्यवहार में कहा जाता है। जैसे शीत-उष्ण का विरोध है परन्तु इस प्रकार नाम, स्थापना आदि में परस्पर विरोध नहीं है क्योंकि नाम आदि एक पदार्थ में एक साथ रहते हैं, यह सुनिश्चित है। __प्रवाह रूप से प्रवर्तमान द्रव्य के नाम, स्थापना और भावों में से किसी एक के प्रकट होने पर उस द्रव्य के क्षय का अनुभव नहीं होता है अर्थात् नामादि निक्षेप के प्रगट होने पर त्रिकाल ध्रुव द्रव्य का नाश नहीं होता है। अथवा नाम या स्थापना वा भाव में से किसी एक के प्रकट होने पर जिससे एक का नाश रूप विरोध जाना जाता हो, ऐसा भी नहीं है परन्तु नामादि किसी एक के प्रगट होने पर एक का अभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है। इस प्रकार एक के होने पर एक के विनाश का अनुभव नहीं होने पर भी उन नामादि निक्षेपों में परस्पर विरोध की कल्पना कर लेने पर तो कोई भी पदार्थ किसी भी पदार्थ से अविरुद्ध नहीं होगा। बौद्धों के मतानुसार विरोध सर्वथा कल्पित भी नहीं है। क्योंकि सर्वत्र विरोध सत्त्व आदि के समान वस्तु के धर्म स्वरूप से निर्णीत है अर्थात् जैसे सत्त्व, क्षणिकत्व आदि वस्तु के धर्म हैं उसी प्रकार विरोध भी वस्तु का धर्म है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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