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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 151 न नामादीनां संकरो व्यतिकरो वा स्वरूपेणैव प्रतीते: / तदनेन नामादीनामेकत्राभावसाधने विरोधादिसाधनस्यासिद्धिरुक्ता। येनात्मना नाम तेनैव स्थापनादीनामेकत्रैकदा विरोध एवेति चेत् न, तथानभ्युपगमात् // एकत्रार्थे विरोधश्चेन्नामादीनां सहोच्यते। नैकत्वासिद्धितीर्थस्य बहिरंतश्च सर्वथा // 83 // न हि बहिरंतर्वा सर्वथैकस्वभावं भावमनुभवामो नानैकस्वभावस्य तस्य प्रतीतेर्बाधकाभावात्। न च तथाभूतेर्थे, येन स्वभावेन नामव्यवहारस्तेनैव स्थापनादिव्यवहरणं तस्य प्रतिनियतस्वभावनिबंधनतयानुभूतेरिति कथं विरोधः सिद्ध्येत् / किं च / नामादिभ्यो विरोधोनन्योऽन्यो वा स्यादुभयरूपो वा ? रूप आत्मा में नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप युगपत् पाये जाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है। इसमें विरोध कैसे संभव हो सकता है ? इसमें विरोध मानने पर अति प्रसंग दोष आता है। अर्थात् नामादि निक्षेपों में एकत्र विरोध मान लेने पर माता पुत्री, रूप रस आदि के भी एक पदार्थ में रहने का विरोध आयेगा। इसीलिए नामादि निक्षेपों की निज-निज स्वरूप से स्वतंत्रता पूर्वक अर्थ में प्रतीति होने से संकर व्यतिकर दोष भी नहीं हैं। (सम्पूर्ण धर्मों के परस्पर मिल जाने को संकर दोष कहते हैं। एक दूसरे में परिवर्तन हो जाने को वा परस्पर बदल जाने को व्यतिकर कहते हैं।) इस कथन से यह सिद्ध किया गया है कि एक पदार्थ में नामादिक निक्षेपों का अभाव सिद्ध करने के लिए दिये गए विरोध, संकर आदि हेतु असिद्ध हेत्वाभास हैं। - जिस स्वभाव से नाम निक्षेप है उसी स्वरूप से स्थापना, द्रव्य निक्षेप आदि एक काल में और एक पदार्थ में नहीं है क्योंकि इनमें परस्पर विरोध है, ऐसा कथन उचित नहीं है क्योंकि हमने उस प्रकार स्वीकार नहीं किया है अर्थात् जिस धर्म या स्वभाव से नाम निक्षेप है उसी धर्म या स्वभाव से स्थापना आदि निक्षेप नहीं स्वीकार किये गये हैं। भिन्न-भिन्न अपेक्षा से नाम आदिक युगपत् एक अर्थ में पाये जाते हैं। एक पदार्थ में नाम आदिकों के साथ रहने का विरोध है ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि बहिरंग और अन्तरंग अर्थों में सर्वथा एकपने की असिद्धि है अर्थात् ज्ञान, आत्मा, सुखादि पदार्थ तथा घट अग्नि आदि बहिरंग पदार्थ अनेक स्वभाव वाले हैं अत: भिन्न-भिन्न स्वभावों से एक अर्थ में नामादिक सभी निक्षेप रह जाते हैं // 83 // बहिरंग अथवा अंतरंग सम्पूर्ण पदार्थों का हम सर्वथा एक ही स्वभाव से अनुभव नहीं कर रहे हैं। अपितु एक और अनेक स्वभाव से युक्त सम्पूर्ण पदार्थों की प्रतीति होती है। इस प्रतीति के बाधक प्रमाण का अभाव है। इस एक और अनेक स्वभाव वाले पदार्थ में जिस स्वभाव से नाम निक्षेप का व्यवहार होता है उसी स्वभाव से स्थापनादि निक्षेपों का व्यवहार नहीं होता है। क्योंकि नाम स्थापना आदि चारों निक्षेपों में प्रत्येक निक्षेप में प्रतिनियत भिन्न-भिन्न स्वभाव के कारणत्व की अनुभूति (प्रतीति) होती है अतः इसमें विरोध कैसे सिद्ध हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। क्योंकि नाम निक्षेप स्वभाव की योग्यता भिन्न है और स्थापनादि की योग्यता का स्वभाव भिन्न है। एक वस्तु में पृथक्-पृथक् स्वभाव स्वीकार किये बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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