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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 150 नामादयो विशेषा जीवाद्यर्थात् कथंचिद्भिन्ना निक्षिप्यमाणनिक्षेपकभावात् सामान्यविशेषभावात् प्रत्ययादिभेदाच्च / ततस्तेषामभेदे तदनुपपत्तेरिति / घटाद्रूपादीनामिव प्रतीतिसिद्धत्वान्नामादीनां न्यस्यमानार्थाभेदेन तस्य तैया॑सो युक्त एव / न हि नामेंद्रः स्थापनेंद्रो द्रव्येंद्रो वा भावेंद्रादभिन्न एव प्रतीयते येन नामेंद्रादिविशेषाणां तद्वतो भेदो न स्यात् / नन्वेवं नामादीनां परस्परपरिहारेण स्थितत्वादेकत्रार्थेवस्थानं न स्यात् विरोधात् शीतोष्णस्पर्शवत्, सत्त्वासत्त्ववद्वेति चेन्न; असिद्धत्वाद्विरोधस्य नामादीनामेकत्र दर्शनाद् विरोधस्यादर्शनसाध्यत्वात् / परमैश्वर्यमनुभवत्कश्चिदात्मा हि भावेंद्रः सांप्रतिकेंद्रत्वपर्यायाविष्टत्वात् / स एवानागतमिंद्रत्वपर्यायं प्रति गृहीताभिमुख्यत्वाद्र्व्येंद्रः, स एवेंद्रांतरत्वेन व्यवस्थाप्यमानः स्थापनेंद्रः , स एवेंद्रांतरनाम्नाभिधीयमानो नामेंद्र इत्येकत्रात्मनि दृश्यमानानां कथमिह विरोधो नाम अतिप्रसंगात् / तत एव जीवादि पदार्थों से नामादि निक्षेप निक्षेप्यमाण, निक्षेपक भाव, सामान्य विशेष भाव और ज्ञान भेद की अपेक्षा कथंचित् भिन्न है अर्थात् जीवादि पदार्थ सामान्य हैं और नामादि निक्षेप विशेष हैं अतः निक्षेप्य सामान्य जीवादि पदार्थ और निक्षेपक नामादि निक्षेप ये पृथक्-पृथक् हैं। वाचक शब्द (निक्षेप्य और निक्षेपक) प्रयोजन, संख्या, कारण आदि के भेद से भी इनमें भेद है। तथा जीवादि पदार्थ निक्षेपित किये जाते हैं अत: ये कर्म हैं और नामादि निक्षेप करने वाले करण हैं तथा इनका ज्ञान भी पृथक्-पृथक् होता है। इसलिए ये भिन्न-भिन्न हैं। यदि पदार्थों से उन नामादिकों का अभेद माना जायेगा तो उनमें निक्षेप्य, निक्षेपक आदि की उत्पत्ति नहीं हो सकती जैसे घट से घट रूप में कथंचित् भेद है अत: न्यस्य पदार्थों से नामादि निक्षेपों की कथंचित् भेद रूप प्रतीति सिद्ध होने से निक्षेप के द्वारा पदार्थों का न्यास (लोक व्यवहार) होता है, यह कथन युक्तिसंगत है। नाम इन्द्र, स्थापना इन्द्र और द्रव्य इन्द्र भाव इन्द्र से अभिन्न ही प्रतीत होते है,क्योंकि नाम इन्द्र, स्थापना इन्द्र आदि विशेषणों का विशेषणवान विशेष्य, भाव इन्द्र से भेद नहीं होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि विशेष्य और विशेषण में निक्षेप्य और निक्षेपक में कथंचित् भेद है। जीवादि पदार्थों में नामादिक निक्षेप युगपत् दृष्टिगोचर होते हैं। शंका : इस प्रकार निक्षेप्य और निक्षेपक में (नामादिकों में) भेद होने पर परस्पर परिहार (एक दूसरे का निराकरण) रूप भेद स्थित होगा और उनका एक जगह, एक अर्थ में अवस्थान नहीं होगा क्योंकि शीत स्पर्श और उष्ण स्पर्श के समान वा सद् असत् के समान एकस्थान में रहने का विरोध होगा। समाधान: ऐसा कहना उचित नहीं है इनमें विरोध की असिद्धि है। क्योंकि एकत्र दृष्टिगोचर नहीं होना ही विरोध साध्य है। परन्तु जीवादि पदार्थों में नाम, स्थापनादि निक्षेप युगपत् दृष्टिगोचर होते हैं (अत: अनुपलंभ प्रमाण से साधने योग्य विरोध यहाँ कैसे संभव है, कैसे भी नहीं) जैसे परम ऐश्वर्य का अनुभव करने वाला सौधर्म स्वर्गस्थ कोई आत्मा वर्तमान कालीन इन्द्र पर्याय से युक्त भाव इन्द्र है। वही भाव इन्द्र भविष्य काल में होने वाली अनेक पल्य प्रमाण काल तक भोगने योग्य इन्द्र पर्याय के प्रति अभिमुख होने से द्रव्य रूप इन्द्र है। वही इन्द्र इन्द्रान्तरत्व में स्थापित किया जाता है अतः वह स्थापना इन्द्र हो जाता है। अर्थात् एक राजा में दूसरे राजा की स्थापना की जाती है इसमें कोई क्षति नहीं है। तथा वही सौधर्म इन्द्र ब्रह्म, आनत आदि दूसरे इन्द्रों के नामों से कहा जाता है तब वह नाम इन्द्र भी हो जाता है। इस प्रकार एक ही भाव इन्द्र
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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