________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 149 न्यासस्यापि नामादिभिन्यासोपगमात्। नामजीवादयः स्थापनाजीवादयो द्रव्यजीवादयो भावजीवादयश्चेति जीवादिभेदानां प्रत्येकं नामादिभेदेन व्यवहारस्य प्रवृत्तेः परापरतत्प्रभेदानामनंतत्वात् सर्वस्य वस्तुनोऽनंतात्मकत्वेनैव प्रमाणतो विचार्यमाणस्य व्यवस्थितत्वात् सर्वथैकांते प्रतीत्यभावात् // ननु नामादयः केन्ये न्यस्यमानार्थरूपतः / यैासोस्तु पदार्थानामिति केप्यनुयुंजते॥ 79 // तेभ्योपि भेदरूपेण कथंचिदवसायतः / नामादीनां पदार्थेभ्यः प्रायशो दत्तमुत्तरम् // 80 // नामेंद्रादिः पृथक्तावद्भावेंद्रादेः प्रतीयते। स्थापनेंद्रादिरप्येवं द्रव्येंद्रादिश्च तत्त्वतः // 81 // तद्भेदश्च पदार्थेभ्यः कथंचिद्घटरूपवत् / स्थाप्यस्थापकभावादेरन्यथानुपपत्तितः // 82 // न्यास के भी नामादिक के द्वारा न्यास स्वीकार किया गया है अर्थात् जीवादि पदार्थों के समान न्यास भी स्वतंत्र पदार्थ है। उसके भी नाम स्थापना आदि न्यास किये जाते हैं जैसे - नाम जीव, स्थापना जीव, द्रव्य जीव, भाव जीव आदि। इस प्रकार जीवादि भेदों में प्रत्येक भेद में नाम स्थापना आदि भेद से व्यवहार की प्रवृत्ति होती है क्योंकि जीवादि पदार्थों के पर, अपर और उनके अवान्तर भेदों की अपेक्षा अनन्तपना है अर्थात् उनके अवान्तर भेद अनन्त होते है। प्रमाण के द्वारा विचार्यमाण सम्पूर्ण वस्तुएँ अनन्त धर्मों से तदात्मक होकर व्यवस्थित हैं। सर्वथा एकान्त पक्ष के अनुसार पदार्थों की प्रतीति नहीं होती है अर्थात् अनेक धर्मों से व्याप्त वस्तु की सिद्धि स्याद्वाद दर्शन में कथित नय चक्र के द्वारा ही होती है, एकान्तवादियों के नहीं हो सकती / न्यस्यमान पदार्थों से भिन्न नामादि निक्षेप क्या वस्तु है, जिनके द्वारा पदार्थों का न्यास होता है / न्यास और न्यस्यमान पदार्थ भेद रूप से कथंचित् प्रतीत नहीं होते हैं, इनका भेद रूप से निर्णय नहीं होता है। ऐसा कोई वादी कहता है। जैनाचार्य कहते हैं कि नामादि निक्षेपों का पदार्थों से कथंचित् भेद है इसका उत्तर पूर्व में दे चुके हैं क्योंकि नाम निक्षेप से व्यवहृत किये गये इन्द्रादि पदार्थ स्वर्गस्थ भाव इन्द्र आदि पदार्थों से पृथक्भूत प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार पाषाण आदि में स्थापित इन्द्र से स्वर्गस्थ भाव इन्द्र विभिन्न है। तथा भावी काल में होने वाले द्रव्य इन्द्रादि की अपेक्षा वर्तमान कालीन भाव इन्द्र आदि तत्त्वतः पृथक्भूत प्रतीत होते हैं / इसलिए जीवादि पदार्थों से नामादि निक्षेप कथंचित् भेदस्वरूप हैं। जैसे घट से घट का रूप कथंचित् भिन्न है अन्यथा (स्याद्वाद नय की पद्धति के बिना) स्थाप्य स्थापक भाव, वर्तमान भविष्य भाव, परिणामी परिणाम भाव आदि की व्यवस्था नहीं हो सकती // 79-80-81-82 // अर्थात् प्रथम स्वर्ग का सौधर्म इन्द्र स्थाप्य है, किसी पदार्थ में इन्द्र की स्थापना करने वाला पुरुष स्थापक है, जिस पदार्थ में स्थापना की है वह स्थापना है। किसी पुरुष का 'इन्द्र' यह नाम रखना संज्ञा है, जिसका नाम रखा गया है वह संज्ञेय है / इत्यादि प्रकार से नामादि निक्षेपों का न्यस्यमान पदार्थों से कथंचित् भेद है।