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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 148 पर्यायार्थनयाद्भेदे तयोर्मुख्यैव सा मता। न्यासस्यापि च नामादिन्यासेष्टे नवस्थितिः // 77 // भेदप्रभेदरूपेणानंतत्वात्सर्ववस्तुनः / सद्भिर्विचार्यमाणस्य प्रमाणान्नान्यथा गतिः // 7 // न्यस्यमानता पदार्थेभ्योऽनांतरमेव चेत्येकांतवादिन एवोपद्रवंते न पुनरनेकांतवादिनस्तेषां द्रव्यार्थिकनयार्पणात्तदभेदस्य, पर्यायार्पणाद्भेदस्येष्टत्वात् / तत्राभेदविवक्षायां पदार्थानां न्यास इति गौणी वाचोयुक्ति: पदार्थेभ्योऽनन्यस्यापि न्यासस्य भेदेनोपचरितस्य तथा कथनात् / न हि द्रव्यार्थिकस्य तद्भेदो मुख्योस्ति तस्याभेदप्रधानत्वात्। भेदविवक्षायां तु मुख्या सा पर्यायार्थिकस्य भेदप्रधानत्वात् / न च तत्रानवस्था, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा न्यास और न्यास वाले पदार्थ में भेद हो जाने पर पदार्थों का न्यास यह भेद गर्भित वचन का प्रयोग मुख्य माना गया है। जैसे आत्मा का ज्ञान / ऐसी दशा में न्यास पदार्थ का भी नामादि निक्षेपों के द्वारा पुन: न्यास करना इष्ट है। इसमें अनवस्था दोष नहीं है जैसे वृक्ष को कहने वाले वृक्ष शब्द में भी यह अकारान्त है, पुल्लिंग है यह नाम रखे जाते हैं। इसी प्रकार एक विशिष्ट ऋषि में आचार्य की स्थापना करली जाती है। उस आचार्य की अनुपस्थिति में दूसरे ऋषि में आचार्य की स्थापना की जाती है उसकी चित्राम में आचार्य की स्थापना की जाती है। बहुत पर्यायों का अन्तर होने पर भी उन मध्य में होने वाली पर्यायों की उत्प्रेक्षा करके द्रव्य निक्षेप का भी द्रव्य निक्षेप किया जाता है। जैसे रावण को भावी तीर्थंकर कहना। तथा स्थूल वर्तमान में सूक्ष्म वर्तमान पर्यायों का तारतम्य से भाव निक्षेप भी न्यस्यमान हो जाता है।।७७॥ सम्पूर्ण वस्तुयें भेद और प्रभेद रूप से अनन्त हैं, बुद्धिमानों को उन सर्व भेद प्रभेदों को प्रमाण और नय के द्वारा जानना चाहिए अन्यथा (एकान्त वाद के द्वारा) वस्तु की व्यवस्था नहीं हो सकती॥७८॥ न्यस्यमानता पदार्थों से अभिन्न ही है, इस प्रकार एकान्तवादी उपद्रव करते हैं / परन्तु अनेकान्त वाद में कोई उपद्रव नहीं है क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा न्यास और न्यस्य मान पदार्थ में अभेद स्वीकार किया है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद को इष्ट माना है। उसमें अभेद विवक्षा होने पर पदार्थों का न्यास इस भेद प्रतिरूपक षष्ठी विभक्ति का प्रयोग गौण हो जाता है। अतः पदार्थों से अभिन्न न्यास का भेद रूप व्यवहार नय से वैसा कथन कर दिया गया है। यह भेद रूप कथन उपचरित है। जैसे आत्मा के ज्ञान, पुद्गल के रूप आदि का कथन किया जाता है। द्रव्यार्थिक नय से किया गया न्यास और न्यस्यमान पदार्थ का भेद मुख्य नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक नय में अभेद की प्रधानता है। भेद विवक्षा में पदार्थों का न्यास है, यह कथन व्यवहार नय से मुख्य है क्योंकि पर्यायार्थिक नय मुख्य रूप से भेद का कथन करता है। इस प्रकार नय विवक्षा होने पर अनवस्था दोष नहीं आता है क्योंकि जिस पदार्थ में नामादि निक्षेप का न्याय लोकव्यवहार के लिए नाम आदि रखे जाते हैं वह पदार्थ-न्यस्यमान है और नाम आदि न्यास है। 2. सांख्य। ov
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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