________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 147 ननु न्यासः पदार्थानां यदि स्यान्यस्यमानता / तदा तेभ्यो न भिन्नः स्यादभेदाद्धर्मधर्मिणोः॥७३॥ भेदे नामादितस्तस्य परो न्यासः प्रकल्प्यताम् / तथा च सत्यवस्थानं क्व स्यात्तस्येति केचन // 74 // न हि जीवादयः पदार्था नामादिभिय॑स्यंते, न पुनस्तेभ्यो भिन्नो न्यास इत्यत्र विशेषहेतुरस्ति यतोऽनवस्था न स्यात् धर्मधर्मिणोर्भेदोपगमात् / तन्न्यासस्यापि तैासांतरे तस्यापि तैासांतरे तस्यापि तैासांतरस्य दुर्निवारत्वादिति केचित् / / तदयुक्तमनेकांतवादिनामनुपद्रवात् / सर्वथैकांतवादस्य प्रोक्तनीत्या निवारणात् // 75 // द्रव्यार्थिकनयात्तावदभेदे न्यासतद्वतोः / न्यासो न्यासवदर्थानामिति गौणी वचोगतिः // 76 // शंका : न्यास का अर्थ यदि पदार्थों की न्यस्यमानता है तब तो न्यास उन पदार्थों से भिन्न नहीं हो सकता क्योंकि धर्म और धर्मी में भेद नहीं होता है। धर्म धर्मी में अभिन्नता है॥७३॥ धर्म (न्यास) और धर्मी (न्यासमानता) में भेद मान लेने पर उस न्यास की नाम आदिक से फिर दूसरी न्यास कल्पना करनी पड़ेगी / पुन: तीसरा न्यास कल्पित करना पड़ेगा। ऐसा होने पर अवस्थान कहाँ होगा अर्थात् ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आयेगा इस प्रकार किसी का प्रश्न है? // 74 // जीवादिक पदार्थ नामादि निक्षेप के द्वारा निक्षेप (न्यास) को प्राप्त होते हैं किन्तु फिर उन जीव आदिकों से भिन्न न्यास नाम का पदार्थ नाम आदिकों से न्यासमान नहीं किया जाता है। इसमें कोई विशेष हेतु नहीं है जिससे कि धर्म और धर्मी का भेद स्वीकार कर लेने पर स्याद्वाद मत में अनवस्था दोष नहीं आता है, अपितु आता ही है। क्योंकि जीव रूप धर्मी से न्यास रूप धर्म भिन्न पदार्थ है, उस न्यास पदार्थ का भी पुन: जीव के समान नाम स्थापना आदि के द्वारा न्यास किया जायेगा और न्यास का भी पुनः अन्य न्यास किया जावेगा, इसी प्रकार भिन्न न्यासान्तर किये जायेंगे। इस अनवस्था का निवारण करना अत्यन्त कष्ट साध्य है। इस प्रकार कोई प्रतिवाद कहते हैं। जैनाचार्य इसका समाधान करते हैं नामादि निक्षेप में अनवस्था दोष कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में दोषों का उपद्रव नहीं है। स्याद्वाद दर्शन में सर्वथा भेद या अभेद एकान्तवाद का पूर्वोक्त नीति (न्याय) से निवारण कर दिया है।।७५।। स्याद्वाद दर्शन में द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा न्यास और न्यास वाले न्यस्यमान पदार्थ में अभेद माना गया है। अत: न्यास वाले अर्थों में न्यास है, इस वचन का प्रयोग करना गौण है.॥७६॥ अर्थात् जैसे ज्ञान और आत्मा में अभेद मानने पर ज्ञान ही आत्मा है यह प्रयोग मुख्य है और ज्ञान से युक्त आत्मा है यह कथन गौण है क्योंकि यह व्यवहार नय का कथन है। अभिन्न गुण-गुणी के पिण्ड रूप द्रव्य का विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय धर्म-धर्मी को एक स्वरूप से ग्रहण करता है।