________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *145 तेषां दर्शनजीवादिपदार्थानामशेषतः / इति संप्रतिपत्तव्यं तच्छब्दग्रहणादिह // 70 // यदमस्त कश्चित् तद्ग्रहणं सूत्रेनर्थकं तेन विनापि नामादिभिया॑सः / सम्यग्दर्शनजीवादीनामित्यभिसंबंधसिद्धेस्तेषां प्रकृतत्वान्न जीवादीनामेव अनंतरत्वात्तदभिसंबंधप्रसक्तिस्तेषां विशेषादिष्टत्वात् प्रकृतदर्शनादीनामबाधकत्वात् तद्विषयत्वेनाप्रधानत्वाच्च / नापि सम्यग्दर्शनादीनामेव नामादिन्यासाभिसंबंधापत्तिः जीवादीनामपि प्रत्यासन्नत्वेन तदभिसंबंधघटनादिति / तदनेन निरस्तं / सम्यग्दर्शनादीनां प्रधानानामप्रत्यासन्नानां जीवादीनां च प्रधानानां प्रत्यासन्नानां नामादिन्यासाभिसंबंधार्थत्वात् तद्ग्रहणस्य / तदभावे प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीय इति न्यायात् सम्यग्दर्शनादीनामेव तत्प्रसंगस्य निवारयितुमशक्तेः॥ इस सूत्र में तत् शब्द का ग्रहण होने से सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तथा जीवादि सात तत्त्वों का अशेष (सर्व) रूप से न्यास (नामस्थापनादि के द्वारा लोक व्यवहार) होता है, ऐसा विश्वास करना चाहिए // 70 // . कोई वादी मानते हैं कि सूत्र में तत् शब्द का ग्रहण निष्प्रयोजन है क्योंकि तत् शब्द के बिना भी नामादि के द्वारा जीवादि पदार्थों का न्यास (लोक व्यवहार) हो सकता है। तथा जीवादि तत्त्वों का और सम्यग्दर्शन आदि मोक्षप्राप्ति के उपायों का प्रकरण होने से उनका नामादि न्यास के साथ संबंध सिद्ध ही है अतः तत् शब्द का ग्रहण न करने पर भी अव्यवहित पूर्व होने से जीवादि सात तत्त्वों का ग्रहण हो ही जाता है परन्तु अनन्तर होने से तत् शब्द का ग्रहण करने पर भी सम्यग्दर्शनादि का न्यास के साथ संबंध नहीं हो सकता परन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि उन जीवादिकों का अनन्तरत्व अर्थात् न्यास सूत्र के साथ निकटता होने से उनके अभिसंबंध तो होते ही हैं अत: उनका तो विशेष रूप से आदेश कर दिया गया है। व्यापक प्रकरण तो सम्यग्दर्शन आदि का ही है अत: वे जीवादिक प्रकरण में प्राप्त सम्यग्दर्शन आदिकों के बाधक नहीं हैं क्योंकि सम्यग्दर्शनादि का विषय होने से जीवादि अप्रधानभूत हैं अर्थात् जीवादि सात तत्त्व सम्यग्दर्शन के विषयभूत पदार्थ हैं और सम्यग्दर्शनादि विषयी हैं अतः प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादि का संबंध होना छूट नहीं सकता तथा सम्यग्दर्शन आदिकों के ही साथ नामादि के द्वारा न्यास के संबंध होने की आपत्ति प्राप्त होगी, ऐसा भी नहीं है अर्थात् सम्यग्दर्शनादि का ग्रहण हो ही जाता है क्योंकि अत्यन्त निकटवर्ती होने से जीवादिक के साथ भी न्यास का संबंध होना घटित हो जाता है। अब जैनाचार्य इस प्रकार तत् शब्द पर विचार करने वाले वादी का खण्डन करते हैं। “प्रधानाप्रधानयोः प्रधाने सम्प्रत्ययः" प्रधान और अप्रधान का प्रकरण होने पर प्रधान में ही ज्ञान होता है इसलिए दूरवर्ती प्रधानभूत सम्यग्दर्शन आदि का तथा निकटवर्ती अप्रधानभूत जीवादि का नामादि न्यास के साथ संबंध कराने के लिए तत् शब्द को ग्रहण किया है क्योंकि तत् शब्द के ग्रहण के अभाव में प्रत्यासत्ति से भी प्रधान अधिक बलवान होता है, इस न्याय के अनुसार प्रधानभूत सम्यग्दर्शन आदि के साथ ही न्यास का संबंध होने का प्रसंग आयेगा जीवादि के साथ नहीं इसका निवारण करना अशक्य होगा अर्थात् तत् शब्द के अभाव में प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादि का ही नामादिक के द्वारा लोकव्यवहार होगा, अप्रधानभूत जीवादिक के साथ नहीं; इस प्रसंग का निराकरण