________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 144 प्रागुपरमादन्वयित्वादिति ब्रूमः / न च तदसिद्धं देवदत्त इत्यादि नाम्नः क्वचिद्वालाद्यवस्थाभेदाद्भिन्नेपि विच्छेदानपपत्तेरन्वयित्वसिद्धेः। क्षेत्रपालादिस्थापनायाश्च कालभेदेपि तथात्वाविच्छेद इत्यन्वयित्वमन्वयप्रत्ययविषयत्वात् / यदि पुनरनाद्यनंतान्वयासत्त्वान्नामस्थापनयोरनन्वयित्वं तदा घटादेरपि न स्यात् / तथा च कुतो द्रव्यत्वं ? व्यवहारनयात्तस्यावांतरद्रव्यत्वे तत एव नामस्थापनयोस्तदस्तु विशेषाभावात् / ततः सूक्तं नामस्थापनाद्रव्याणि द्रव्यार्थिकस्य निक्षेप इति। भावस्तु पर्यायार्थिकस्य सांप्रतिकविशेषमात्रत्वात्तस्य / तदेतैर्नामादिभिया॑सो न मिथ्या, सम्यगित्यधिकारात् सम्यक्त्वं पुनरस्य सुनयैरधिगम्यमानत्वात् // स्थापना में प्रवृत्ति के प्रारम्भ से लेकर विराम के पूर्व तक अन्वयीपना पाया जाता है और अन्वयीपना ही द्रव्य निक्षेप का आधार है, इसलिए हम नाम, स्थापना निक्षेप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा कहते हैं तथा नाम और स्थापना में अन्वयीपना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि देवदत्त आदि नामों का किन्हीं व्यक्तियों में बालक कुमार आदि अवस्थाओं के भेद से भिन्न होते हुए भी विच्छेद की अनुपपत्ति (विच्छेद का अभाव) होने से अन्वयीपना सिद्ध है अर्थात् देवदत्तादि नाम बालक युवा आदि सभी अवस्था में व्यापी है, तभी तो उस में एकत्व आदि प्रत्यभिज्ञान होता है। क्षेत्रपाल की स्थापना आदि में काल की अपेक्षा भेद होते हुए भी स्थापनात्व की अपेक्षा व्यवच्छेद नहीं पाया जाता है। इसीलिए पाषाण आदि में स्थापित क्षेत्रपालादि में यह वही है, यह वही है' इस प्रकार के अन्वयी ज्ञान की विषयता होने से अन्वयीपना बहुत काल तक अविच्छिन्न रूप से चलता रहता है अर्थात् अनादि काल से स्थापित अकृत्रिम जिन मन्दिर, जिन प्रतिमाओं के नाम स्थापना का अन्वय सिद्ध ही है। यदि पुनः अनादिकाल से लेकर अनन्त कालतक अन्वय का असत्व होने से नाम और स्थापना में अन्वयपना नहीं माना जायेगा तो घट आदिक के भी अन्वयपना नहीं हो सकेगा और घटादि में अन्वयपना * न होने से उनमें द्रव्यत्व भी घटित कैसे होगा? अर्थात् कुछ काल तक अन्वयत्व होने के कारण ही घटादि द्रव्यार्थिक नय के विषय होते हैं। घट मनुष्यादि पर्याय अनादि अनन्त काल तक रह नहीं सकती है। यदि व्यवहार नय की अपेक्षा उन घट आदि पदार्थों में अनादि अनन्त महाद्रव्य व्यापी अवान्तर विशेष द्रव्य माना जायेगा तो उसी प्रकार नाम और स्थापना निक्षेप में भी महाद्रव्यव्यापी अवान्तर द्रव्य विशेष मान लेना चाहिए क्योंकि द्रव्य निक्षेप के अन्वय में और नाम स्थापना के अन्वय में कोई विशेषता नहीं है। अत: नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं और भाव निक्षेप वर्तमान कालविशेष गोचर होने से पर्यायार्थिक नय का विषय है; यह आचार्यदेव का कथन / समीचीन है। यहाँ सम्यग्दर्शन का अधिकार होने से नाम स्थापनादि के द्वारा होने वाला लोक व्यवहार मिथ्या नहीं है। क्योंकि सुनयों के द्वारा वस्तु धर्म का निर्णय कर के ही नाम स्थापना आदि द्वारा जीवादि तत्त्वों का समीचीन न्यास (अधिगम) होता है अत: चारों निक्षेप समीचीन हैं।