________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 138 तद्विपरीतविषयव्यवस्थापकस्यासंभवात् / यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकमक्षणिके सर्वथार्थक्रि याविरोधातल्लक्षणसत्त्वानुपपत्तेरित्यनुमानेन तद्बाध इति चेन्नास्य विरुद्धत्वात् / सत्त्वं ह्यर्थक्रियया व्याप्तं, सा च क्रमयोगपद्याभ्यां ते च कथंचिदन्वयित्वेन, सर्वथानन्वयिनः क्रमयोगपद्यविरोधादर्थक्रियाविरहात् सत्त्वानुपपत्तेरिति समर्थनात् / सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमात्मन्येकत्वप्रत्ययं बाधत इति चेन्न, एकत्र संताने तस्य जो सत् है वह सर्व क्षणिक है, अक्षणिक नित्य पदार्थ में सर्वथा अर्थक्रिया का विरोध आता है। अतः अर्थक्रिया स्वरूप उस सत् (सर्वथा नित्य मान लेने पर) लक्षण द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती। इस अनुमान के द्वारा प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि में विरोध आता है। इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। क्योंकि सर्वथा क्षणिक द्रव्य की सिद्धि करने वाला यह अनुमान विरुद्ध है। अर्थात् द्रव्य को क्षणिक सिद्ध करने के लिए दिया गया सत्त्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है। सत्त्व की व्याप्ति अर्थक्रिया के साथ है और वह अर्थक्रिया क्रम तथा युगपत् होने वाले परिणाम (पर्याय) के साथ व्याप्ति रखती है। और वे क्रम एवं युगपत् दोनों कथंचित् अन्वयी से व्याप्ति रखते हैं। सर्वथा अनन्वयी क्षणिक स्वलक्षण के यौगपद्य तथा क्रम होने का विरोध है। जहाँ क्रम और योगपद्य नहीं है वहाँ अर्थक्रिया का भी अभाव होता है और अर्थक्रिया के अभाव में व्याप्य सत्त्व की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार हेतु का समर्थन है अतः सत्त्व हेतु कथंचित् अन्वय रूप से व्याप्त है, सर्वथा क्षणिक नहीं है। त्रिकालगोचर पर्यायों के अन्वय रखने वाले आत्मा में एकत्व का विषय करने वाला प्रत्यभिज्ञान का सादृश प्रत्यभिज्ञान बाधक है अर्थात् भिन्न-भिन्न समयों में होने वाले निरन्वय परिणाम में ही सादृश्य होता है, अन्वयी एक द्रव्य में सादृशपना नहीं होता है ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि पूर्वापर परिणामों की एक सन्तान रूप में सादृश्य ज्ञान कभी नहीं होता है। अनेक सन्तान रूप चित्तों (आत्माओं) में सादृश्य प्रत्यभिज्ञान होता हुआ देखा जाता है अत: एक सन्तान रूप चित्तों में भी सादृश्य ज्ञान का सद्भाव है अर्थात् अनेक ज्ञान और सुख में अन्वित रहने वाला कोई एक द्रव्य नहीं है- अतः इनमें सादृश्य का ज्ञान होता है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि अनेक संतानों के विभाग के अभाव का प्रसंग आयेगा अर्थात् द्रव्य के संबंध को स्वीकार न करके सादृश्य पदार्थों में एक सन्तान मानने वाले बौद्धों के सन्तान के सांकर्य का निवारण नहीं हो सकता है। अनेक संतानों का विभाग करना अशक्य हो जायेगा। यदि अनेक (स्वकीय परकीय) परिणामों (पर्यायों) में सदृशत्व की अपेक्षा विशेषता न होते हुए भी किन्हीं विशेष चित्तों का संबंध विशेष हो जाने के कारण एक सन्तानपना माना जाता है और किन्हीं चित्त विशेषों का विशेष संबंध होने से दूसरी सन्तान मानी जाती है। इस प्रकार बौद्ध प्रत्यासत्ति से अनेक सन्तानों के विभाग की सिद्धि करेंगे तब तो एक द्रव्य रूप चित्त के विशेष परिणामों के एक सन्तानत्व सिद्ध होता है। द्रव्य नामक प्रत्यासत्ति को ही एक सन्तानपने की कारणता सिद्ध होती है।