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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 137 द्रव्यलक्षणमुक्तं / सूत्रकारेण तु परमतव्यवच्छेदेन प्रमाणार्पणाद्गुणपर्ययवद्र्व्यमिति सूत्रितं क्रमाक्रमानेकांतस्य तथा व्यवस्थितेः॥ कुतस्तर्हि त्रिकालानुयायि द्रव्यं सिद्धमित्याह;अन्वयप्रत्ययात्सिद्धं सर्वथा बाधवर्जितात् / तद्रव्यं बहिरंतश्च मुख्यं गौणं ततोऽपरम् // 66 // . तदेवेदमित्येकत्वप्रत्यभिज्ञानमन्वयप्रत्ययः स तावज्जीवादिप्राभृतज्ञायिन्यात्मन्यनुपयुक्ते जीवाद्यागमद्रव्येस्ति / य एवाहं जीवादि प्राभृतज्ञाने स्वयमुपयुक्तः प्रागासन् स एवेदानीं तत्रानुपयुक्तो वर्ते पुनरुपयुक्तो भविष्यामीति संप्रत्ययात् / न चायं भ्रांत: सर्वथा बाधवर्जितत्वात् / न तावदस्मदादिप्रत्यक्षेण तस्य बाधस्तद्विषये स्वसंवेदनस्यापि विशदस्य वर्तमानपर्यायविषयस्याप्रवर्तनात् / नाप्यनुमानेन तस्य बाधस्तस्य सूत्रकार के द्वारा पाँचवें अध्याय में अन्य दर्शनों में माने गये द्रव्य के लक्षण का खण्डन करके प्रमाण दृष्टि की अपेक्षा सहभावी गुण और क्रमभावी पर्याय वाला द्रव्य कहा गया है क्योंकि क्रम और अक्रम से अनेकान्त की इस प्रकार व्यवस्था होती है अर्थात् प्रमाण दृष्टि से अक्रम से होने वाला अनेकान्त है और नय दृष्टि से कथन करने पर क्रमानेकान्त है। जैसे क्रम से होने वाले जीव के मतिज्ञान आदि और पुद्गल के काली पीली आदि पर्यायें क्रमानेकान्त हैं। तथा चेतना, सुख, ज्ञान आदि जीव की और रूप रस आदि पुद्गल सहभावी पर्याय की अपेक्षा अक्रमानेकान्त हैं। . इस द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा त्रिकाल अन्वय रखने वाले द्रव्य की सिद्धि कैसे होती है? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि___सर्वथा बाधक प्रमाणों से रहित अन्वय ज्ञान से शरीर आदि बहिरंग और ज्ञानस्वरूप आत्मा अंतरंग द्रव्यमुख्य सिद्ध है। तथा उनसे भिन्न आरोपित किया गया गौण द्रव्य है॥६६॥ 'यह वही है, यह वही है' इस प्रकार एकत्व को जानने वाला प्रत्यभिज्ञान अन्वय ज्ञान है। वह ज्ञान जब जीवादि शास्त्र को जानने वाला है परन्तु वर्तमान में उसका उस शास्त्र में उपयोग नहीं है ऐसा जीवादि आगम द्रव्य आत्मा में अवश्य विद्यमान है। क्योंकि जो मैं जीवादि के कथन करने वाले शास्त्र ज्ञान में स्वयं उपयुक्त था वही मैं इस समय उस शास्त्रज्ञान में उपयोग रहित होकर स्थित हूँ। भविष्य काल में मैं ही उस शास्त्र में उपयुक्त हो जाऊंगा। इस प्रकार का ज्ञान हो रहा है अर्थात् एक ही विद्वान् भक्तामर का ज्ञाता हैं उसमें उपयुक्त नहीं है परन्तु तत्त्वार्थ सूत्र में उपयुक्त है, ऐसा देखा जाता है। - सर्वथा बाधाओं से वर्जित होने से यह ज्ञान भ्रान्त भी नहीं है। यह प्रत्यभिज्ञान हमारे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित भी नहीं है क्योंकि उस प्रत्यभिज्ञान के विषय में वर्तमान पर्यायों का विषय करने वाले विशद स्वरूप स्वसंवेदन की भी प्रवृत्ति नहीं है। अर्थात् नित्य द्रव्य को सिद्ध करने वाले प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि में प्रत्यक्ष ज्ञान से बाधा नहीं आती है। अनुमान प्रमाण से भी प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि में बाधा नहीं आती है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के विरुद्ध विषय के व्यवस्थापक अनुमान की असंभवता है अर्थात् अनित्य द्रव्य को सिद्ध करने वाला अनुमान नहीं
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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