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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 133 सादरानुग्रहाकांक्षाहेतुत्वात्प्रतिभिद्यते / नाम्नस्तस्य तथाभावाभावादत्राविवादतः // 55 // स्थापनायामेवादरोनुग्रहाकांक्षा च लोकस्य न पुनर्नाम्नीत्यत्र न हि कस्यचिद्विवादोस्ति येन तत: सा न प्रतिभिद्यते / नाम्नि कस्यचिदादरदर्शनान्न ततस्तद्भेद इति चेन्न, स्वदेवतायामतिभक्तितस्तन्नामकेर्थे तदध्यारोपस्याशुवृत्तेस्तत्स्थापनायामेवादरावतारात् / तदनेन नाम्नि कस्यचिदनुग्रहाकांक्षाशंका व्युदस्ता, केवलमाहितनामके वस्तुनि कस्यचित्कादाचित्की स्थापना कस्यचित्तु कालांतरस्थायिनी नियता / भूयस्तथा संप्रत्ययहेतुरिति विशेषः॥ नन्वनाहितनाम्नोपि कस्यचिद्दर्शनेंजसा। पुनस्तत्सदृशे चित्रकर्मादौ दृश्यते स्वतः // 56 // सोऽयमित्यवसायस्य प्रादुर्भावः कथंचन / स्थापना सा च तस्येति कृतसंज्ञस्य सा कुतः॥ 57 // आदर करना, अनुग्रह कराने की आकांक्षा अभिलाषा रखना आदि कारणों से नाम निक्षेप से स्थापना निक्षेप पृथक् है क्योंकि उस नाम निक्षप में आदर, अनुग्रह की आकांक्षा आदि के भाव का अभाव है अर्थात् नाम निक्षेप में पूज्यता आदि के भाव नहीं होते हैं परन्तु स्थापना निक्षेप में आदर आदि के भाव में किसी का विवाद भी नहीं है क्योंकि सभी मतावलम्बी अपने इष्ट की स्थापना करके आदर आदि करते ही हैं॥५५॥ .. लौकिक जनों की, स्थापना में ही आदर और अनुग्रह की अभिलाषा रहती है, किन्तु नाम निक्षेप में नहीं। इस विषय में किसी का विवाद भी नहीं है। जिससे नाम निक्षेप और स्थापना में भेद न हो अर्थात् इन दोनों में आदर अनादर की प्रवृत्ति देखी जाती है अत: इन दोनों में भेद है। जैनाचार्य कहते हैं, नाम में भी किसी का आदर देखा जाता है इसलिए नाम और स्थापना में कोई भेद नहीं है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि अपने इष्ट देवता में अतिभक्ति के वश से उस नाम वाले अर्थ में उस देवता की मूर्ति की शीघ्र ही अध्यारोप स्थापना कर ली जाती है अतः उस देवता की स्थापना में ही आदर का अवतार होता है, आदर अनुग्रह की अभिलाषा उत्पन्न होती है, नाम निक्षेप में नहीं। जैसे नाम महावीर का आदर नहीं होता अपितु स्थापना महावीर का आदर वा पूजा होती है। इस कथन से किसी की इस शंका का भी खण्डन हो जाता है कि नाम वाले पदार्थ में भी किसी की अनग्रह की आकांक्षा होती है क्योंकि स्थापना का स्मरण करके ही उस प्रतिबिम्ब से अनुग्रह कराने की अभिलाषा उत्पन्न होती है, केवल नाम से नहीं तथा उस नाम को धारण करने वाली वस्तु में किसी पुरुष के तो कादाचित्की (कभी-कभी होने वाली) स्थापना होती है और किसी पुरुष के बहुत कालतक स्थिर रहने वाली नियत स्थापना होती है अर्थात् जैसे चावल, सुपारी आदि में की गई देव-शास्त्र आदि की स्थापना कुछ काल के लिए होती है और जिनमन्दिर में सुवर्ण, पाषाण आदि में की गई देव आदि की स्थापना बहुत काल तक स्थिर रहती है यह स्थापना सम्यग्ज्ञान की कारण है / यह नाम और स्थापना में विशेषता है। प्रश्न : जिसका नाम निक्षेप नहीं हुआ है, ऐसे किसी पदार्थ के देखने पर तथा पुनः शीघ्र ही उसके सदृश चित्र कर्म आदि में यह वही है इस प्रकार के निर्णय की उत्पत्ति स्वतः देखी जाती है और वह स्थापना
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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