________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 132 सिद्धे हि जात्यादिनिमित्तांतरे विवक्षात्मनः शब्दस्य निमित्तात् संव्यवहारिणां निमित्तांतरानपेक्षं संज्ञाकर्म नामेत्याहुराचार्यास्ततो जात्यादिनिमित्तं संज्ञाकरणमनादियोग्यतापेक्षं न नाम / केनचित् स्वेच्छया संव्यवहारार्थ प्रवर्तितत्वात् , परापरवृद्धप्रसिद्धेस्तथैवाव्यवच्छेदात् , बाधकाभावात् // का पुनरियं स्थापनेत्याहवस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता। सद्भावेतरभेदेन द्विधा तत्त्वाधिरोपतः॥ 54 // .. स्थाप्यत इति स्थापना प्रतिकृतिः सा चाहितनामकस्येंद्रादेर्वास्तवस्य तत्त्वाध्यारोपात् प्रतिष्ठा सोऽयमित्यभिसंबंधेनान्यस्य व्यवस्थापना स्थापनामात्रं स्थापनेति वचनात् / तत्राध्यारोप्यमानेन भावेंद्रादिना समाना प्रतिमा सद्भावस्थापना मुख्यदर्शिनः स्वयं तस्यास्तद्बुद्धिसंभवात् / कथंचित्सादृश्यसद्भावात् / मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति संप्रत्ययात् // इस प्रकार शब्द के विवक्षात्मक निमित्त से पृथक् जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया और परिभाषात्मक निमित्तान्तर के सिद्ध हो जाने पर संव्यवहारियों के निमित्तान्तर की अपेक्षा न करके संज्ञा कर्म को जैनाचार्य नाम निक्षेप कहते हैं अत: अनादिकालीन योग्यता की अपेक्षा से जाति आदि के निमित्त से संज्ञा करना नाम निक्षेप नहीं है। किसी पुरुष के स्वयं की इच्छा से समीचीन संव्यवहार के लिए किसी संज्ञा कर्म की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार पर वृद्ध (प्राचीनवृद्ध) और अपर (आधुनिक) वृद्धों की आम्नायानुसार अक्षुण्ण अनादिकालीन प्रसिद्धि है। इसमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है। इस प्रकार नाम निक्षेप का कथन पूर्ण हुआ। स्थापना निक्षेप किसे कहते हैं, ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं किया गया है नाम निक्षेप जिसका ऐसी वस्तु के उन वास्तविक धर्मों में अध्यारोप से यह वही है, ऐसी प्रतिष्ठा करना स्थापना निक्षेप है।सद्भाव तदाकार और असद्भाव अतदाकार के भेद से स्थापना दो प्रकार की है॥५४॥ ण्यत् स्था धातु से युट् और टाप् प्रत्यय लगाने से स्थापना शब्द निष्पन्न होता है। जो स्थापित की जाती है वह स्थापना कहलाती है। इसका अर्थ है किसी की प्रकृति अर्थात् प्रतिबिम्ब / परमैश्वर्य लक्षण वाले वास्तविक नाम वाले इन्द्रादिक को किसी अन्य वस्तु में अध्यारोपित करना (प्रतिनिधित्व करना) प्रतिष्ठा स्थापना है। यह वह है' इस प्रकार के संबंध से अन्य की व्यवस्थापना स्थापनामात्र वा स्थापना कहलाती है क्योंकि स्थापना कर देना ही स्थापना है, इस प्रकार ऋषियों ने स्थापना को भाव प्रधान कहा है। __इस स्थापना के प्रकरण में वास्तविक इन्द्र पर्याय से परिणत और स्वर्ग में स्थित भाव निक्षेप से कथित इन्द्र आदि के समान प्रतिमा में आरोपित इन्द्र आदि की स्थापना सद्भाव स्थापना है क्योंकि वस्तु को देखने वाले के हृदय में स्वयं उस प्रतिमा के अनुसार सादृश्य से यह वह है' ऐसी बुद्धि की संभवता है क्योंकि कथंचित् उसमें सादृश्य का सद्भाव है अत: यह सद्भाव स्थापना है। मुख्य आकार से शून्य केवल वस्तु में यह वही है ऐसी स्थापना करना असद्भाव स्थापना है क्योंकि मुख्य पदार्थ को देखने वाले भी जीव को दूसरों के उपदेश से ही यह वही है' इस प्रकार का उसमें समीचीन ज्ञान होता है अर्थात् असद्भाव स्थापना में परोपदेश के बिना 'यह वही है' ऐसा ज्ञान नहीं होता है, परोपदेश से ही होता है।