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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 130 चाद्रव्यत्वादेरद्रव्यत्वादिशब्देन प्रकाशनाद्वा / न च भावोपहितत्वमभावस्यासिद्धं सर्वदा घटस्याभावः पटस्याभाव इत्यादि भावोपाधेरेवाभावस्य प्रतीतेः। स्वातंत्र्येण सकृदप्यवेदनात्। तथैवाद्रव्यं गुणादिरजीवो धर्मादिरिति गुणाद्यपाधेरद्रव्यत्वादेः सुप्रतीतत्वात् न तस्य तदुपहितत्वमसिद्धं तथा प्रतीतेरबाधत्वात् / एतेन सत्सामान्यस्य विशेषोपहितत्वं द्रव्यत्वादिसामान्यस्य च द्रव्यत्वादिविशेषोपहितत्वमसिद्धं ब्रुवाणः प्रत्याख्यातः, सतां विशेषाणां भावः सत्ता द्रव्यादीनां भावो द्रव्यादित्वमिति सत्तादिसामान्यस्य स्वविशेषाश्रयस्यैव प्रत्ययाभिधानव्यवहारगोचरत्वात् / सद्र्व्यं सुवर्णं वानयेत्युक्ते तन्मात्रस्यानयनादर्शनात् स्वविशेषात्मन एव सदादिसामान्यस्य तद्गोचरत्वं प्रतीतिसिद्धं / सदादिविशेषमानयेति वचने तस्य सत्त्वादिसामान्यात्मकस्य है। क्योंकि अभाव भावान्तर स्वभाव वाला है। जैसे सुख नहीं है, दुःख है। मधुर नहीं है, कटु है। मधुर का अभाव कटु रूप भावान्तर स्वभाव वाला है। द्रव्य नहीं है, गुण है। गुण नहीं है, द्रव्य है अभाव भी भावान्तर स्वभाव वाला है। तथा, भाव विशेषण से युक्त अभाव की असिद्धि भी नहीं है। क्योंकि घट का अभाव, पट का. अभाव इत्यादि अभाव की प्रतीति सदा भाव उपाधियों से युक्त ही होती है। घट का अभाव है, इस वाक्य में अभाव विशेष्य है घट विशेषण है अत: निश्चय होता है कि भाव से युक्त अभाव का अभाव शब्द से प्रतिपादन होता है स्वतंत्र अभाव एक बार भी अनभव में नहीं आता है। तथा अद्रव्य यह भी गुण, पर्याय आदि स्वरूप है। अजीव ये धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल आदि भाव स्वरूप हैं अतः अद्रव्य शब्द से गुण आदि उपाधियों (विशेषणों) की तथा अजीव शब्द से धर्म, अधर्म आकाश, पुद्गल और काल द्रव्य की प्रतीति होती है। इन प्रतीतियों का कोई बाधक प्रमाण नहीं होने से इन उपाधियों से युक्त द्रव्य की असिद्धि नहीं है। अतः अभाव भी भावान्तर का वाचक सिद्ध है। इस कथन के द्वारा “सत्ता सामान्य को सद्विशेषों से युक्त और द्रव्यत्वादि सामान्य का द्रव्यत्व आदि से युक्तता को असिद्ध कहने वाले वैशेषिकों के मत का" खण्डन कर दिया गया है क्योंकि घट आदि विशेष सत्पदार्थों का भाव ही सत्ता है, और द्रव्य आदि का भाव ही द्रव्यत्व आदि है। इस प्रकार निजनिज विशेषों का आश्रयीभूत सत्तादि सामान्य का ज्ञान व्यवहार अभिधान (शब्द) व्यवहार दृष्टिगोचर होता है अर्थात् सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही ज्ञान और शब्द व्यवहार के गोचर होती है। “जैसे सद् द्रव्य सुवर्ण को लाओ" ऐसा कहने पर केवल सुवर्ण सत्ता द्रव्य का लाना दृष्टिगोचर नहीं होता है। अपितु स्वविशेष से युक्त (सामान्य सुवर्ण विशेष कुण्डल पासा आदि से युक्त वस्तु) नियत सुवर्ण का लाना व्यवहार का विषय होता है। अर्थात् अपने विशेषों के साथ तादात्म्य रखने वाले सत् द्रव्य सुवर्ण आदि सामान्य का विषय भी प्रतीति सिद्ध है। सत् आदि विशेष (कुण्डल आदि) को लाओ ऐसा कहने पर केवल विशेष की प्रतीति नहीं होती है अपितु सत् सामान्य से तदात्मक विशेष व्यवहार गोचर होता है अर्थात् कुण्डल लाओ कहने पर सुवर्ण
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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