________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 128 विशेषरूपं तेनैक्येनाध्यवसीयते सामान्याकारस्यैवाध्यवसेयत्वात् / दृश्यसामान्येन सह विकल्प्यमेकत्वेनाध्यवसीयत इति चेत् , कथं दृश्यविशेषे तदर्थिनां प्रवृत्तिः स्यात् / दृश्यविशेषस्य दृश्यसामान्येन सहैकत्वारोपात्तत्र प्रवृत्तिरिति चेत् , क्वेदानीं सौगतस्य प्रवृत्तिरनवस्थानात् / सुदूरमप्यनुसृत्य विशेषेध्यवसायासंभवात् / ततोर्थप्रवृत्तिमिच्छता शब्दात्तस्य नान्यापोहमानं विषयोभ्युपेयो जातिमात्रादिवत्। सर्वथा निर्विषयः शब्दोस्त्वित्यसंगतं, वृत्त्यापि तस्य निर्विषयत्वे साधनादिवचनव्यवहारविरोधात् / किं पुनरेवं शब्दस्य विषय इत्याह;जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु ततोस्तु ज्ञानगोचरः। प्रसिद्धं बहिरंतश्च शाब्दव्यवहृतीक्षणात् // 50 // ऐसा बौद्धों के कहने पर उसका समाधान करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि- तब तो असाधारण विशेष रूप दृश्य विकल्प्य के साथ एकत्व से निश्चित (ज्ञात) नहीं होते हैं। उसमें सामान्याकार से ही एकत्व ने की योग्यता है अर्थात विकल्प्य के साथ विशेष रूप से दृश्य का एकत्वारोप होना असंभव है। दृश्य सामान्य के साथ यदि विकल्प्य के एकत्व का निश्चय करते हैं तो अर्थक्रियाओं के अभिलाषियों की दृश्य विशेष में प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी अर्थात् दृश्य सामान्य जानकर दृश्य विशेष में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। दृश्य विशेष का दृश्य सामान्य के साथ एकत्व का आरोप कर लेने पर अर्थक्रिया के अभिलाषियों की दृश्य विशेष में प्रवृत्ति होती है, ऐसा मानने पर भी बौद्ध की प्रवृत्ति कहाँ हो सकेगी क्योंकि इसमें अनवस्था दोष आने से कहीं भी प्रवृत्ति नहीं होगी अर्थात् दृश्य विशेष का ज्ञान हो जाने पर तो दृश्य सामान्य का दृश्य विशेष के साथ एकत्व का निर्णय होगा और उन दोनों के एकत्व का निर्णय करने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता होगी अत: अनवस्था दोष आता है। अत: बहुत दूर जाकर भी विशेष में निर्णय की असंभवता ही रहेगी। इसलिए शब्द के द्वारा अर्थ में प्रवृत्ति के इच्छुक पुरुषों को शब्द का वाच्यार्थ केवल अन्यापोह मात्र स्वीकार नहीं करना चाहिए जैसे अर्थ में प्रवृत्ति करने के इच्छुक पुरुषों ने केवल जाति व्यक्ति और आकृति को शब्द के वाच्य अर्थ को स्वीकार नहीं किया है। उसी प्रकार शब्द अपोह मात्र का कथन करता है ऐसा भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। शब्द सर्वथा निर्विषय है अर्थात् शब्द का वाच्य अर्थ ही नहीं है, ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि संवृत्ति (व्यवहार या कल्पना) से भी शब्द को निर्विषय मान लेने पर साधनादिक वचन व्यवहार का विरोध आता है। अर्थात् जब शब्द का कोई वाच्य अर्थ नहीं है तब विपक्ष व्यावृत्ति, पक्ष धर्मत्व सपक्षसत्व आदि तीन अंग वाले हेतु का उच्चारण करना और उच्चरित हेतु के द्वारा सपक्षसिद्धि और परपक्ष व्यावृत्ति करना आदि व्यवहार की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। पुनः शब्द का विषय क्या है ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं : जाति व्यक्ति (सामान्य विशेष) आत्मक ही बहिरंग (घट पट आदि) अंतरंग (आत्मा ज्ञानादि) वस्तु (पदार्थ) ज्ञान का विषय है यह लोकप्रसिद्ध है। इसलिए शब्द का वाच्य अर्थ (विषय) भी जाति, व्यक्ति आत्मक वस्तु ही मानना चाहिए क्योंकि जाति व्यक्ति आत्मक वस्तु में ही शब्दजन्य व्यवहार दृष्टिगोचर होता है। अत: सामान्य विशेषात्मक पदार्थ ही शाब्द ज्ञान का विषय है ऐसा मानना चाहिए॥५०॥