________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 127 श्येर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिस्तस्यार्थक्रियायां समर्थनान्न पुनर्विकल्प्ये तस्य तत्रासमर्थत्वादिति चेन्ना, अर्थक्रियासमर्थन कल्पेन सहैकत्वाध्यारोपमापन्नस्य दृश्यस्यार्थक्रियासमर्थत्वैकांताभावात् / स्वतोर्थक्रियासमर्थं दृश्यमिति त् तदेकत्वाध्यारोपाद्विकल्प्यमपि स्वतो न तत्समर्थमिति चेत् तदैक्यारोपाद् दृश्यमपि दनयोरेकत्वेनाध्यवसितयोरविशेषात् सर्वथा क्वचित्प्रवृत्तौ कथमन्यत्रापि प्रवृत्तिर्विनिवार्यते / न नयोरेकत्वाध्यवसाय: संभवति दृश्यस्याध्यवसायाविषयत्वात् अन्यथा विकल्प्यस्य वस्तुसंस्पर्शित्वप्रसंगात् / च परमार्थतो दृश्यमविषयीकुर्वन् विकल्पो विकल्प्येन सहैकतयाध्यवस्यति नामातिप्रसंगात् / ननु च दृश्यं कल्पस्यालंबनं मा भूदध्यवसेयं तु भवतीति युक्तं तद्विकल्प्येन सहैकतयाध्यवसायत्वमिति चेत् , तर्हि न ___ निर्विकल्प दर्शन के द्वारा जानने योग्य स्वलक्षण रूप दृश्य में ही अर्थक्रिया के इच्छुक जीवों की वृत्ति होती है, क्योंकि अर्थक्रिया करने में दृश्य पदार्थ ही समर्थ हैं परन्तु विकल्प्य पदार्थ में अर्थक्रेयाभिलाषी जीवों की प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि असत् पदार्थ रूप विकल्प्य अर्थक्रिया करने में समर्थ हीं हैं इसलिए विकल्प्य में प्रवृत्ति नहीं होती है इस प्रकार का बौद्धों का प्रत्युत्तर भी उचित नहीं है क्योंकि अर्थक्रिया करने में असमर्थ विकल्प्य के साथ एकत्व से अध्यारोपित दृश्य के भी एकान्त रूप से अर्थक्रिया करने के सामर्थ्य का अभाव हो जायेगा अर्थात् दृश्य और विकल्प्य जब दोनों एक साथ हैं तब एक के अर्थक्रिया का अभाव होने से दूसरे के भी अर्थक्रिया के सामर्थ्य का अभाव हो जायेगा। . यदि दृश्य स्वयमेव अर्थक्रिया करने में समर्थ है, ऐसा कहते हो तो दृश्य के साथ एकत्व का अध्यारोप होने से विकल्प्य भी स्वयं अर्थक्रिया करने में समर्थ हो जायेंगे। यदि कहो कि विकल्प्य अर्थ स्वतः अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है तो विकल्प्य के साथ एकत्व का अध्यारोप होने से दृश्य (स्वलक्षण) भी स्वतः अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं होगा क्योंकि एकत्व से निर्णीत दृश्य और विकल्प्य में कोई विशेषता नहीं है फिर भी सर्वथा क्वचित् (दृश्य) पदार्थ में प्रवृत्ति मानते हैं तो दूसरे विकल्प्य में प्रवृत्ति को कैसे रोका जा सकता है अर्थात् नहीं रोका जा सकता। ___ अथवा दृश्य और विकल्प्य में एकत्व का अध्यवसाय संभव नहीं है क्योंकि दृश्य अध्यवसाय (निश्चय) का विषय नहीं है अर्थात् बौद्ध मतानुसार स्वलक्षण दृश्य निर्विकल्प है अत: निश्चय ज्ञान वस्तुभूत दृश्य को नहीं जानता है अन्यथा (दृश्य का निश्चय ज्ञान होगा तो) विकल्प ज्ञान के भी वस्तु स्पर्श करने का प्रसंग आयेगा। तथा जब तक विकल्प ज्ञान दृश्य का विषय नहीं कर पाता है तब तक वह विकल्प ज्ञान विकल्प्य के साथ एकत्व का निश्चय नहीं कर सकता। यदि विकल्प ज्ञान अज्ञात विषय में प्रवृत्ति करेगा तो अति प्रसंग दोष आयेगा। अर्थात् आत्मा और आकाश के भी एकत्व के निर्णय का प्रसंग आयेगा। शंका : निर्विकल्प प्रत्यज्ञ ज्ञान का विषयभूत स्वलक्षण दृश्य विकल्प्य का अवलम्बन (कारण) नहीं होता है अपितु निर्णय करने योग्य होता है, यह युक्त है (दृश्य के साथ मिला हुआ है) इसलिए निश्चयात्मक विकल्प ज्ञान विकल्प्य के साथ दृश्य पदार्थ के एकता की निर्णय कर लेता है।