________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 126 शब्दप्रतिपत्तिभेदस्तु संकेतभेदादेव व्यावृत्तिावृत्त इति। धर्मधर्मिप्राधान्येन संकेतविशेषे प्रवृत्तेस्तद्वाच्यभेदस्तु न वास्तवोतिप्रसंगात् / तदुक्तं / “अपि चान्योन्यव्यावृत्तिवृत्त्योावृत्त इत्यपि / शब्दाश्च निश्चयाश्चैवं संकेतं न निरुंधते' इति दृश्यविकल्पयोर्व्यावृत्त्योरेकत्वारोपाव्यावृत्तिचोदनेपि शब्देन विकल्पेन वा व्यावृत्तेः प्रवृत्तिरर्थे स्यादिति कश्चित् / तस्य विकल्प्येपि कदाचित्प्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात् / न हि दृश्यविकल्प्ययोरेकत्वाध्यवसायाविशेषेपि दृश्य एव प्रवृत्तिर्न तु विकल्पे जातुचिदिति बुद्ध्यामहे / 'अघट व्यावृत्ति' 'अगो' व्यावृत्ति इत्यादिक भिन्न-भिन्न शब्दों का और भिन्न ज्ञानों का होना तो संकेत ग्रहण के भेद से ही हा जाता है। तथा भाव में ‘क्ति' प्रत्यय करने से व्यावृत्ति और 'क्त' प्रत्यय करने से व्यावृत्त शब्द की निष्पत्ति होती है। व्यावृत्त धर्म पदार्थ है और व्यावृत्ति धर्मी पदार्थ है। कल्पित धर्म और धर्मी की प्रधानता से संकेत विशेष में प्रवृत्ति हो जाती है। भिन्न शब्दों का भिन्न वाच्य मानना वास्तविक नहीं है। अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् क्वचित् शब्द एक है और अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। जैसे गो शब्द एक है परन्तु उसका वाच्यार्थ वाणी, पृथ्वी, किरण आदि अनेक हैं। कहीं शब्द भिन्न-भिन्न हैं और उनका वाच्यार्थ एक है जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि भिन्न शब्दों का वाच्यार्थ एक इन्द्र ही है इसलिए भिन्न-भिन्न वाच्यों का भिन्न अर्थ मानने से अतिप्रसंग दोष आता है। सो ही बौद्ध ग्रन्थों में कहा है “परस्पर में होने वाली एक दूसरे की व्यावृत्ति और वृत्तियाँ भी इसी प्रकार व्यावृत्त हैं। शब्द और शब्दों के द्वारा हुआ निश्चय संकेत को रोकता नहीं है। भावार्थ : लौकिक जनों ने संकेत प्रणाली के अनुसार अनेक शब्द इच्छानुसार प्रचलित कर लिये हैं और इसलिए उन शब्दों से होने वाला ज्ञान भी कल्पित है, वास्तविक नहीं है। ___ इस प्रकार शब्द रूप दृश्य और विकल्प्यों की व्यावृत्तियों में एकत्व के आरोप से अव्यावृत्ति की चोदना (प्रेरणा) होने पर भी शब्द विकल्प से दृश्य और विकल्प्य में व्यावृत्ति हो जाने से किसी वास्तविक अर्थ में शब्द की प्रवृत्ति हो जाती है। अब जैनाचार्य कहते हैं कि उस बौद्ध दर्शन में क्वचित् दृश्य के समान विकल्प्य में भी प्रवृत्ति हो सकती है क्योंकि दृश्य और विकल्प्य में विशेषता का अभाव है अर्थात् इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। दृश्य विषय और विकल्प्य विषय में विशेषता रहित एकत्व का अध्यवसाय (निर्णय) होने पर भी शब्द की दृश्य में ही प्रवृत्ति होती है, विकल्प्य में कभी भी प्रवृत्ति नहीं होती, ऐसे नियम का कारण हम नहीं समझ रहे हैं अर्थात् ऐसा नियम किस कारण से है, यह ज्ञात नहीं हुआ है। क्योंकि दृश्य का शब्द के द्वारा उच्चारण करने पर विकल्प हो जाता है और दर्शन के विषय को दृश्य कहते हैं विकल्प के विषय को विकल्प्य कहते हैं दोनों का अर्थ एक होते हुए भी शब्द की प्रवृत्ति दृश्य में होती है विकल्प्य में नहीं, ऐसा क्यों माना जाता है यह समझ में नहीं आया। .