________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 121 तस्यां विशेषसंश्रयात् प्रमाणांतरवृत्तेरेव निश्चयात् / ततो वक्तुरिच्छायां बहिरर्थवच्छब्दस्य प्रवृत्त्यसंभवेपि तामेव शब्दो विदधातीति कथं न वाध्यविचूंभितं, सर्वशब्दानामन्यापोहकारित्वप्रतिज्ञानात् / ननु च विवक्षायाः स्वरूपे संवेद्यमाने शब्दो न प्रवर्तते एव कल्पितेन्यापोहे तस्य प्रवृत्तेस्ततोन्यापोहकारी सर्वः शब्द इति वचनान्न वांध्यविलसितमिति चेत् , स तर्हि कल्पितोन्यापोह: विवक्षातो भिन्नस्वभावो वक्तुः स्वसंवेद्यो न स्याद्भावांतरवत् तस्य तत्स्वभावत्वे वा संवेद्यत्वसिद्धेः कथं न संवेद्यमाने तत्स्वरूपे शब्दः प्रवर्तते। ननु च वक्तुर्विवक्षायाः स्वसंविदितं रूपं संवेदनमात्रोपादानं सकलप्रत्यये भावात् कल्पनाकारस्तु पूर्वशब्दवासनोपादानस्तत्र वर्तमानः इसलिए शब्द के द्वारा उस वाच्य अर्थ में प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी यह स्वीकार करना उनको युक्त नहीं है। क्योंकि शब्द के द्वारा सामान्य रूप से अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान) हो जाने पर उसमें विशेष अर्थों के जानने का आश्रय लेने पर प्रमाणान्तरों की प्रवृत्ति होने से ही उस प्रमाणान्तर के द्वारा उस सामान्य अर्थ के विशेष-विशेष अंशों का निर्णय हो सकता है। तथा वक्ता की इच्छा में या उसके विषय में अन्य प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती है, ऐसा भी नहीं मानना चाहिए क्योंकि सामान्य रूप से शब्द के द्वारा वक्ता की इच्छा का ज्ञान हो जाने पर भी उसको विशेष रूप में जानने के लिए प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति घटित हो जाती है। __बौद्ध मतानुसार शब्द के द्वारा बहिर्भूत अर्थ के समान वक्ता की इच्छा में प्रवृत्ति होने की असंभवता होने पर भी 'शब्द वक्ता की इच्छा का विधान करता है', 'बहिर्भूत पदार्थ का विधान नहीं करता है ऐसा कहना वंध्या के पुत्र की चेष्टा के समान निष्फल कैसे नहीं है अर्थात् ऐसा कहना निष्फल है। क्योंकि सर्व शब्द अन्यापोह (अभाव) को कहते हैं, ऐसी प्रतिज्ञा करके उससे विपरीत विवक्षा का विधान करने का कथन करना निष्फल चेष्टा है अर्थात् निषेध और विधान विपरीत हैं। ... बौद्ध का कथन है- स्वसंवेद्यमान विवक्षा के स्वरूप में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती है-अपितु कल्पित अन्यापोह में शब्द की प्रवृत्ति होती है-अतः सभी शब्द अन्यापोहकारी हैं-ऐसा हमारे ग्रन्थों का कथन है अतः हमारा कथन वंध्या के पुत्र की चेष्टा के समान निष्प्रयोजन, बकवाद नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो वह तुम्हारा कल्पित अन्यापोह वक्ता की इच्छा से भिन्न स्वभाव वाला होने से अन्य घट पट आदि पदार्थों के समान वक्ता के स्वसंवेदन का विषय नहीं हो सकता। क्योंकि स्वसंवेदन स्वकीय सुखादि पदार्थों का होता है अन्य पदार्थों का नहीं होता है। यदि अन्यापोह को उस विवक्षा का स्वभाव मानोगे तो अन्यापोह के स्वसंवेद्यत्व की सिद्धि हो जायेगी और अन्यापोह के संवेदन की सिद्धि हो जाने पर शब्द की संवेद्यमान अन्यापोह के स्वरूप में प्रवृत्ति क्यों नहीं होगी (अवश्य होगी)। शंका : (बौद्ध कहता है) वक्ता की विवक्षा का स्वसंविदित स्वरूप (ज्ञात स्वरूप) केवल शुद्ध संवेदन का उपादान (ग्रहण) मात्र है। अर्थात् शुद्ध ज्ञान को जान लेना ही स्वसंवेदन है। वही वक्ता की इच्छा का स्वरूप है वह स्वसंवेदन सर्व ज्ञानों में विद्यमान रहता है किन्तु अन्य कल्पना के आकार रूप विकल्प