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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 122 शब्दः कथं स्वसंवेद्ये रूपे वास्तवे प्रवर्तते नाम यतो वस्तुविषयः स्यादिति चेत् , नैवं / स्वसंविदितरूपकल्पनाकारयोर्भिन्नोपादानत्वेन संतानभेदप्रसंगात् / तथा च सर्वचित्तचैतानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमिति व्याहन्यतो स्वसंवेदनाद्भिन्नस्य विकल्पस्य स्वसंविदितत्वविरोधात् रूपादिवत्। स्वसंवेदनस्यैवोपादानत्वात् कल्पनोत्पत्तौ शब्दवासनाया: सहकारित्वान्न स्वसंविदितस्वरूपात् कल्पनाकारो भिन्नसंतान इति चेत् , कथमिदानीं ततोसावनन्य एव न स्यादभिन्नोपादानत्वात् / तथापि तस्य ततोन्यत्वे कथमुपादानभेदो भेदक:? कार्याणां व्यतिरेकासिद्धेः कार्यभेदस्योपादानभेदमंतरेणापि भावात् तस्य पूर्व की मिथ्या शब्द वासनाओं से उत्पन्न होते हैं अर्थात् कल्पनाकार विकल्प की उत्पत्ति में पूर्व की मिथ्या शब्द वासना उपादान (निमित्त कारण) है। अत: उन कल्पित आकारों में प्रवृत्ति करने वाला शब्द वास्तविक स्वसंवेद्यमान स्वरूप में प्रवृत्ति कैसे कर सकता है जिससे कि वस्तुभूत अर्थों का विषय करने वाला हो सके? समाधान : बौद्ध का यह कथन सुसंगत नहीं है। क्योंकि स्वसंविदित (स्व के द्वारा अनुभूत) स्वरूप का और कल्पित आकारों का भिन्न-भिन्न उपादान होने से सन्तान भेद का प्रसंग आता है अर्थात् एक ही विवक्षा के कुछ अंशों के संवेदन का कारण शुद्ध संवेदन होगा और कुछ अंशों का (कल्पित आकारों का) उपादान (ग्राहक) मिथ्या शब्द वासना होगी अतः भिन्न-भिन्न सन्तान माननी पड़ेगी। . तथा च (ऐसा होने पर) “सर्व चित्तों (आत्माओं) के चैतन्य भावों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है" बौद्ध के इस सिद्धान्त का अपघात (खण्डन) होगा और स्वसंवेदन से सर्वथा पृथक् विकल्प का स्वसंवेदन के द्वारा ज्ञान होना विरुद्ध है जैसे बौद्ध दर्शन में स्वसंवेदन से सर्वथा भिन्न होने से रूपादि बाह्य पदार्थ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं होते हैं। बौद्ध कहता है कि कल्पना ज्ञान की उत्पत्ति में स्वसंवेदन के उपादान कारणत्व है और शब्द वासनाएँ कल्पना की उत्पत्ति में सहकारी कारण हैं इसलिए कल्पना के आकार वाला ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से भिन्न संतान वाला नहीं है अर्थात् कल्पना का उपादान कारण शब्द वासना नहीं है अपितु संवेदन के द्वारा ज्ञात ज्ञान ही उपादान कारण है निर्विकल्प ज्ञान और सविकल्प ज्ञान की धारा पृथक्-पृथक् नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्ध मतानुसार सविकल्प और निर्विकल्प ज्ञान की धारा पृथक्-पृथक् नहीं है तो फिर ये दोनों ज्ञान एक क्यों नहीं हैं, इनमें भेद क्यों माना गया है। जब इन दोनों ज्ञानों का उपादान अभिन्न है तो इन दोनों में अभिन्नत्व ही होना चाहिए। यदि दोनों का उपादान एक होते हुए भी इन दोनों ज्ञानों को पृथक्-पृथक् मानोगे तो “उपादान का भेद ही कार्यों का भेदक है" यह कैसे घटित होगा? क्योंकि इसमें व्यतिरेक की असिद्धि है अर्थात् जहाँजहाँ उपादान में भिन्नत्व है वहाँ-वहाँ कार्यों में भिन्नपना है-जैसे घट, पट आदि यह अन्वय तो सिद्ध हो जायेगा परन्तु जहाँ-जहाँ उपादान भेद नहीं है वहाँ-वहाँ कार्य भेद नहीं है यह व्यतिरेक घटित नहीं हो सकता क्योंकि उपादान का भेद न होने पर भी कार्य भेद माना गया है। जैसे निर्विकल्प ज्ञान और सविकल्प ज्ञान में भेद होते हुए भी बौद्धों ने दोनों का उपादान एक ही स्वीकार किया है अतः उस उपादान भेद को उस कार्यभेद की साधकता नहीं बन सकती।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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