________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 120 निश्चयात्सर्वग्रहापत्तेरन्यथा तदात्मकस्यैकधर्मस्यापि निश्चयानुपपत्तिस्ततो भिन्नस्य धर्मस्य निश्चये धर्मिणि प्रवृत्तिघटनात् तेन तस्य सम्बन्धाभावादनुपकार्योपकारकत्वात्। तदुपकारे वा धर्मोपकारशक्त्यात्मकस्य धर्मिणो धर्मद्वारेण शब्दात् प्रतिपत्तौ सकलग्रहस्य तदवस्थत्वात्तदुपकारशक्तेरपि ततो भेदेनानवस्थानात् / प्रत्यक्षवद्वस्तुविषयस्य शब्दप्रत्ययस्य स्पष्टप्रतिभासप्रसंगाच्च न शब्दस्य तद्विषयत्वं तथैव वक्तृविवक्षायाः शब्देनाभिधाने विशेषाभावात् / न च तत्र प्रमाणांतरा वृत्तिरेवाभ्युपगंतुं युक्ता शब्दात्सामान्यतः प्रतिपन्नायामपि तथा भिन्न धर्म का निश्चय हो जाने पर भी धर्मी में प्रवृत्ति होना घटित नहीं होता है। क्योंकि उस धर्मी के साथ उस धर्म के सम्बन्ध का अभाव है। सभी सम्बन्धों का व्यापक सम्बन्ध उपकार्य और उपकारक भाव है अर्थात् जन्य-जनक भाव, गुरु-शिष्य भाव, कारण-कार्य भावादि में परस्पर उपकार्य, उपकारक भाव ही आता है / शिष्य को गुरु शिक्षा-दीक्षा देता है, शिष्य गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति करता है, गुरु की वैयावृत्ति करता है, एक उपकारक है दूसरा उपकृत है किन्तु इस प्रकरण में उपकार्य,१ उपकारक भाव न होने से धर्म का धर्मी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि उन धर्म, धर्मी में परस्पर उपकारक और उपकार्य भाव मान भी लिया जाता है तो धर्मी का धर्म के द्वारा उपकार किया जाता है कि धर्मी के द्वारा धर्म का उपकार किया जाता है ? यदि धर्म के उपकारक शक्ति आत्मक धर्मी की धर्म के द्वारा शब्द से प्रतीति (ज्ञान) होती है, तब तो सम्पूर्ण से धर्म का ग्रहण हो जाने रूप दोष वैसा का वैसा ही अवस्थित है अर्थात् अभेद पक्ष में धर्मी के लिए उपकृत शक्तियों से अभिन्न धर्म का ज्ञान हो जाने पर भी यही दोष आयेगा। तथा धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मान लेने पर अनवस्था दोष उत्पन्न होता है अर्थात् भिन्नभिन्न धर्म, धर्मी का सम्बन्ध किससे होगा और सम्बन्ध का सम्बन्ध किससे होगा, इत्यादि अनवस्था दोष आता है। किं च-वस्तुभूत अर्थ को जानने वाले सभी ज्ञानों का प्रतिभास स्पष्ट होता है हम बौद्ध निर्विकल्प ज्ञान को ही वस्तु का स्पर्श करने वाला मानते हैं अत: वह निर्विकल्प ज्ञान ही स्पष्टप्रतिभासी प्रत्यक्ष है। यदि शब्दजन्य ज्ञान का विषय प्रत्यक्ष के समान वस्तुभूत माना जायेगा तो शब्दज्ञान को स्पष्ट प्रतिभास करने का प्रसंग आयेगा अतः शब्द का वाच्य अर्थ (विषय) बहिर्भूत पदार्थ नहीं है। - इस प्रकार बौद्ध के द्वारा शब्द का वाच्य अर्थ बहिर्भूत पदार्थ नहीं है, इसकी सिद्धि कर देने पर जैनाचार्य उनका खण्डन करते हैं। बौद्धों के द्वारा जितने दोष शब्द के द्वारा वाच्य अर्थ को प्रकाशन करने में दिये हैं वे सर्वदोष शब्द के द्वारा वक्ता की इच्छा को कहने में भी आते हैं इनमें कोई अन्तर नहीं है अर्थात् वक्ता की इच्छा का कथन करना कहो या बाह्य पदार्थ का ग्रहण करना कहो इन दोनों में विशेषता का अभाव है। ये दोनों कथन एक ही हैं। 1. जिसका उपकार किया जाता है वह उपकार्य है। 2. जिसके द्वारा उपकार किया जाता है वह उपकारक है।