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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 119 ततोन्या पंचमी निवृत्तिस्ततो निवृत्तिः षष्ठी सा गोशब्दस्यार्थ इत्यनवस्था सुदूरमप्यनुसृत्य तद्विधिद्वारेणाश्रयणात्। निवृत्तिपरंपरायामेव शब्दस्य व्यापारात् / शब्दो विवक्षां विधत्ते न पुनर्बहिरर्थमित्यभ्युपगमे कथमन्यापोहकृत्सर्वः शब्द:सर्वथावक्तुरिच्छां विधत्तेसौ बहिरर्थं न जातुचित् / शब्दोन्यापोहकृत्सर्वः यस्य वांध्यविनँभितम् // 44 // यथैव हि शब्देन बहिरर्थस्य प्रकाशने तत्र प्रमाणांतरा वृत्तिः सर्वात्मना तद्वेदनेनार्थस्य निश्चितत्वान्निश्चिते समारोपाभावात् / तद्व्यवच्छेदेपि प्रमाणांतरस्याप्रवृत्तेर्वस्तुनो धर्मस्य कस्यचिन्निश्चये सर्वधर्मात्मकस्य धर्मिणो बौद्ध कहते हैं कि-गौ के समान विधि की सिद्धि का भी अपने से अन्यों की निवृत्ति के द्वारा ही कथन किया जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो चतुर्थी निवृत्ति से अन्य (भिन्न) पाँचवीं निवृत्ति माननी पड़ेगी और उससे अपोह रूप छठी निवृत्ति गो शब्द का वाच्य अर्थ होगी, इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा। अत: बहुत दूर तक पीछे-पीछे जाकर भी उस विधि द्वार का आश्रय लेना पड़ेगा अर्थात् अन्त में गो शब्द का वाच्य अर्थ स्वीकार करना ही पडेगा अन्यथा निवत्तियों की परम्परा में ही शब्द का व्यापार बना रहेगा। (यदि शब्द का वाच्य कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है तो बुद्ध भगवान किसका उपदेश देते हैं।) ___ फिर बौद्ध कहते हैं कि शब्द वक्ता की इच्छा का विधान करता है परन्तु बहिरंग अर्थ को नहीं कहता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो सभी शब्द सर्व प्रकार से अन्यापोह को करने वाले कैसे हो सकते हैं अर्थात् जब शब्द विवक्षा का विधान करेंगे तो अन्यापोह रूप अभाव को कहने वाले कैसे होंगे। शब्द वक्ता की इच्छा का विधान करता है, कभी भी बहिर्भूत अर्थ का विधान नहीं करता है, इस प्रकार जिसके दर्शन में सर्व शब्द अन्यापोह (अभाव) को कहने वाले हैं, ऐसा कहना बन्ध्या पुत्र की सी चेष्टा करने के समान है।॥४४॥ ... ' जिस प्रकार बहिर्भूत घट-पट आदि पदार्थों का प्रकाशन होना मान लेने पर शब्द के वाच्य विषय में अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि सर्व रूप से घट शब्द के द्वारा ही घट अर्थ का निश्चय हो जाता है और सर्वांश से निश्चित पदार्थ में संशय विपर्यय और अनध्यवसाय रूप समारोप नहीं रहता है यदि किसी अंश में समारोप का व्यवच्छेद (दूर) करना मान भी लिया जावे तो भी प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति उसमें नहीं हो सकती। क्योंकि वस्तु के किसी एक धर्म का निश्चय हो जाने पर सम्पूर्ण धर्मों के साथ तदात्मक सम्बन्ध रखने वाले धर्मों का निश्चय हो ही जाता है। इसलिए सम्पूर्ण धर्म के ग्रहण का प्रसंग आता है अर्थात् एक-एक धर्म के साथ सभी धर्म और धर्मी का अभेद है अन्यथा यदि धर्म और धर्मी में अभेद नहीं माना जायेगा तो उस धर्मी से अभिन्न (तदात्मक) एक धर्म का भी निश्चय नहीं हो सकेगा अर्थात् तादात्म्य सम्बन्ध में एक धर्म का निश्चय हो जाने पर सर्व धर्मों का निश्चय हो जाता है, और एक धर्म का निश्चय नहीं होने पर किसी का भी निश्चय नहीं होता है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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